Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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धात्वर्थ - निर्णय
अनुकूलत्वम् "चंत्र इति बोधः - ऊपर की तीनों मान्यताओं के पारस्परिक समन्वय के लिये वे 'अनुकूलता' तथा 'प्राश्रयता' इन दो सम्बन्धों की कल्पना करते हैं । इस रूप में वे 'फल' तथा 'व्यापार' में और 'व्यापार' तथा 'कृति' में 'अनुकूलता' सम्बन्ध मानते हैं क्योंकि 'व्यापार' 'फल' के अनुकूल होता है तथा 'कृति' 'व्यापार' के अनुकूल होती है। इसके साथ ही वे 'कृति' तथा 'प्रथमान्तार्थ (कर्ता) के बीच 'आश्रयता' सम्बन्ध मानते हैं क्योंकि 'कृति' का आश्रय 'कर्ता' है ।
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इन सब मान्यताओं तथा उनके पारस्परिक समन्वय का परिणाम यह होता है कि नैयायिकों की दृष्टि में 'चैत्रः पचति' का अर्थ है - "विक्लति (चावलों का गलना) रूप 'फल' के अनुकूल जो 'व्यापार' उसके अनुकूल जो 'कृति' ('यत्न' ) उसका आश्रय चैत्र" ।
रथो गच्छतीत्यादी
लक्षणेत्याहुः परन्तु ऊपर की प्रक्रिया में दोष वहां प्रता है जहाँ 'कर्ता' कोई अचेतन पदार्थ हो । जैसे- 'रथो गच्छति' (रथ जाता है) । यहाँ रथ अचेतन है, अतः उसमें 'कृति' या यत्न हो ही नहीं सकता क्योंकि यत्न चेतन का धर्म है । इसलिए "संयोग' रूप 'फल' के अनुकूल जो गमन 'व्यापार' उसके अनुकूल जो यत्न उसका 'श्राश्रय रथ" यह अर्थ कैसे किया जा सकता है ?
इस आक्षेप का उत्तर यहाँ यह दिया गया कि ऐसे स्थलों में 'व्यापार' या 'प्राश्रयता' रूप अर्थ में प्रख्यात की 'रूढ़' लक्षणा कर लेंगे । इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि, गमनानुकूल जो 'कृति' उस मुख्यार्थ में रथ का अन्वय न होने के कारण, 'आख्यात' का अर्थ लक्षणा वृत्ति से 'व्यापार' किया जाएगा और तब अर्थ होगा-"गमनानुकूल जो 'व्यापार' उससे युक्त रथ" ।
परन्तु 'व्यापार' में लक्षरणा मानने पर भी यह दोष दिखाई देता है कि यदि रथ को गमनानुकूल 'व्यापार' से युक्त माना गया तो फिर जिस समय रथ में घोड़े नहीं जुते होते तथा वह यों ही पड़ा होता है, उस समय भी 'रथो गच्छति' जैसे प्रयोग होने लगेंगे । इसलिए एक दूसरे विकल्प के रूप में यह प्रस्ताव रखा गया कि 'व्यापार' के स्थान पर 'आश्रयता' में 'प्राख्यात' अर्थात् 'तिङ्' की लक्षणा मानी जाय । दूसरे शब्दों में 'तिङ्' का अर्थ यहाँ 'प्रश्रयता' है 'व्यापार' नहीं । इस 'आश्रयता' में लक्षरणा मानने पर कोई दोष नही आता क्योंकि रथ गमनानुकूल व्यापार की प्राश्रयता से युक्त तो है ही, अर्थात् उसमें गमनानुकूल 'व्यापार' तो होता ही है, भले ही वह व्यापार स्वयं उसी का न हो, घोड़े आदि अन्य साधनों का हो ।
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इस प्रकार नैयायिकों के इस मत को, उसका खण्डन करने के लिए, यहाँ पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है । लघुमंजूषा के तिङर्थनिरूपरण के प्रकरण में इस मत का उल्लेख नव्य मीमांसकों के नाम से किया गया है तथा वहीं विस्तार से इस मत का खण्डन भी किया गया है । परन्तु पलम० तथा लम० के ये प्रसंग एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । द्र० – “यदपि कर्त्रधिकरणे नव्यमीमांसकाः - फलावच्छिन्न- व्यापारानुकूलः कृत्यादिराख्यातार्थः । स च व्यापारत्वेनैव । कृत्यादि व्यापारस्तु विशेष्यत्वानुरोधात् तिङ् वाच्यः । ' रथो गच्छति' इत्यादी प्राश्रयत्वम् एव तिङर्थव्यापारः " ( लम० पृ० ७५० ) । पूरे प्रसंग के लिए द्रष्टव्य - लम० पृ० ७५०-५६ ।