Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिदान्त-परप-लघु-मंजूषा (प्रधान) जिसमें ऐसे 'शाब्दबोध' (रूप कार्य) में 'कर्म' (वाचक) प्रत्यय-सम्बद्ध धातु से व्यक्त होने वाला अर्थ कारण है। इस तरह दो कार्यकारणभाव की कल्पना, दो अर्थों ('व्यापार' तथा 'फल') की दृष्टि से धातु की दो प्रकार की 'शक्ति' की कल्पना तथा धातु में 'बोध-जनकत्व' =रूप दो सम्बन्धों की कल्पना में अत्यधिक गौरव है।
___ इसलिये ('अनुकूलता' सम्बन्ध से) 'फल' से विशिष्ट 'व्यापार' तथा (जन्यता सम्बन्ध से) व्यापार' से विशिष्ट 'फल' में धातु की 'शक्ति' है और 'कर्ता' और 'कर्म' वाचक उन-उन प्रत्ययों की सम्बद्धता उस-उस ज्ञान ('फल'विशिष्ट 'व्यापार' तथा 'व्यापार'-विशिष्ट 'फल' के बोध) में नियामक है ।
___ भर्तृहरि आदि प्राचीन वैयाकरण तथा उनके अनुयायी भट्टोजी दीक्षित आदि यह मानते हैं कि धातु के 'फल' तथा 'व्यापार' ये दो पृथक् पृथक् अर्थ हैं । इसीलिये "फलव्यापारयोर्धातुः" (वभूसा० पृ० १६१ में उद्ध त) इस कारिका में 'फलव्यापारयोः' यह द्विवचनान्त प्रयोग किया गया। परन्तु इस मत को मानने में नागेश ने निम्न आपत्तियाँ दिखाई हैं।
उद्देश्य-विधेयभावेन अन्वयापत्तिः - पहली आपत्ति यह है कि 'फल' और 'व्यापार' को अलग अलग धातु का अर्थ मानने पर अर्थ के अनुसार कभी 'व्यापार' को उद्देश्य तथा 'फल' को विधेय मानना होगा तथा कभी 'फल' को उद्देश्य और 'व्यापार' को विधेय मानना होगा क्योंकि दो भिन्न अर्थ होने पर इस प्रकार के उद्देश्य-विधेयभाव की स्थिति सर्वथा स्वाभाविक है। जैसे ---'नीलो घटः' जब कहा जाता है तो कभी 'नीलः' उद्देश्य होता है तथा 'घट:' विधेय होता है और कभी इसके विपरीत स्थित भी होती है।
___ व्युत्पत्तिद्वय-कल्पने..."कार्यकारणभावद्वयकल्पनम्-दूसरी प्रापत्ति यह है कि दो प्रकार की व्युत्पत्तियों (कार्यकारणभावों) की कल्पना करनी पड़ती है। 'व्यापार' का जब प्रधान रूप से तथा फल का गौरण रूप से बोध होता है तब उस बोध रूप कार्य के प्रति, धातु के साथ सम्बद्ध होने वाले, कर्तृवाचक प्रत्ययों को कारण मानना पड़ता है तथा जब 'फल' का प्रधान रूप से तथा 'व्यापार' का गौण रूप से बोध होता है तब उस बोध रूप कार्य के प्रति, धातु के साथ सम्बद्ध होने वाले, कर्मवाचक प्रत्ययों को कारण मानना पड़ता है।
अर्थद्वये शक्तिद्वयकल्पनम्-तीसरी आपत्ति यह है कि, धातुओं के दो भिन्न भिन्न अर्थ 'फल' तथा 'व्यापार' हैं इसलिये उनकी दृष्टि से, धातुओं में दो प्रकार की भिन्न भिन्न वाचकता 'शक्ति' की कल्पना करनी पड़ती है।
बोध-जनकत्व-सम्बन्ध-द्वय-कल्पनम् -चौथी आपत्ति यह है कि धातुओं में 'फल' तथा 'व्यापार' की दृष्टि से दो प्रकार के 'बोधजनकता' सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है । यह 'बोधजनकता' सम्बन्ध तथा वाचकता 'शक्ति' लगभग एक ही बात है । इसलिये तीसरी आपत्ति की बात को ही यहाँ पुनः कहा गया है । 'बोधजनकता' सम्बन्ध के द्वारा उसी बात को पुनः इसलिए कहा गया कि कुछ प्राचीन विद्वान् 'बोधजनकता' को ही
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