Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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धात्वर्थ - निर्णय
इस परिभाषा का, पतंजलि के इन प्रयोगों से, विरोध उपस्थित होता है । इसके अतिरिक्त 'भुक्त्वा गच्छति' जैसे प्रयोगों में 'भुक्त्वा' को 'साध्य' अथवा क्रिया नहीं माना जा सकता क्योंकि यहाँ भी 'भुक्त्वा' क्रिया, 'गच्छति' क्रिया-विषयक, आकांक्षा को उत्पन्न करती है ।
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"उपपदम् प्रतिङ्" इत्यादौ भाष्ये - " उपपदम् प्रतिङ्' ( पा०२.२.१६) तथा "सुट् कात् पूर्वः " ( पा० ६.१.१३५) सूत्रों में पतञ्जलि ने यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि धातु का सम्बन्ध पहले 'साधनों ' ( कारकों) से होता है । उसके बाद उपसर्गं से उसका सम्बन्ध होता है क्योंकि साधन क्रिया को बनाते हैं- " पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते, पश्चाद् उपसर्गेण, साधनं हि क्रियां निर्वर्तयति" । यहाँ महाभाष्य में क्रिया के 'निर्वर्तन' की जो बात कही गई है उसी को, अपनी परिभाषा - "साध्यत्वं निष्पाद्यत्वम् एव" - की पुष्टि के लिये, नागेश ने प्रमाण के रूप में यहां संकेतित किया है ।
[ 'अस्' इत्यादि धातुम्रों की क्रियारूपता ]
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'करोति' - पदसमभिव्याहारात् प्रतीतेः - 'घटं करोति' जैसे प्रयोगों में 'घट' की 'साध्य' या 'निष्पाद्य' रूप में जो प्रतीत होती है वह 'घटम्' पद के साथ 'करोति' पद के उच्चारण के कारण होती है। द्रव्य स्वभावतः 'सिद्ध' होते हैं परन्तु क्रिया पद के सामीप्य से उनमें 'साध्यता' या उत्पाद्यता आ जाती है । यदि केवल द्रव्य शब्द ( 'घट' आदि) का प्रयोग किया जाये तो उनकी 'सिद्धता' या निष्पन्नता का रूप स्पष्ट प्रतीत होता है । इसीलिये पतञ्जलि ने कहा - " स्वभावसिद्ध ं तु द्रव्यम् " ( महा० १.३.१), अर्थात् द्रव्य स्वभाव से 'सिद्ध' (निष्पन्न) होता है तथा सिद्ध-स्वभाव वाला होने के कारण ही द्रव्य के वाचक 'नाम' शब्दों की परिभाषा में "सत्त्वप्रधानानि ” (निरुक्त १.१), अर्थात् 'नाम' शब्दों में 'सिद्ध' भाव प्रधान होता है, कहा गया ।
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अस्ति भवति-वर्तति - विद्यतीनाम् अर्थः सत्ता । सा च ग्रनेककालस्थायिनी इति कालगत पौर्वापर्येण क्रमवती इति तस्याः क्रियात्वम् । सत्तेह ग्रात्मधारणम् ।
‘अस्', ‘भू’, वृत्', 'विद्' (धातुओं) का अर्थ सत्ता है । और वह सत्ता अनेक काल (काल-विषयक परिमाण, अर्थात् घण्टा, मिनट, सिकण्ड प्रादि) तक स्थिर रहने वाली है । इसलिये काल में विद्यमान पौर्वापर्य या क्रमिकता के कारण यह (सत्ता) क्रमवती है। यह उस (सत्ता) का क्रियात्व है । यहाँ सत्ता का तात्पर्य है आत्म धारण ।
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यदि 'साध्यता' का अभिप्राय 'निष्पाद्यता' माना जाय, जिसमें, भर्तृहरि के उपर्युक्त कथन के अनुसार, एक विशेष क्रम होना चाहिये, तो 'अस्ति', 'भवति' जैसे प्रयोगों' को क्रियापद नहीं माना जा सकता क्योंकि इन धातुओं का अर्थ है सत्ता और सत्ता से 'सिद्धता' की अभिव्यक्ति होती है जिसमें क्रमरूपता नहीं रहा करती ।