Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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धात्वर्थ-निर्णय
१४५
सिद्धत्वं वैजात्यवत्वे सति-इस परिभाषा के अनुसार "सिद्ध' भाव के लिये तीन विशेषताओं का होना आवश्यक है । पहली यह कि उसमें दूसरी 'क्रिया' की आकांक्षा की उत्थापकतारूप धर्म विद्यमान हो, अर्थात् दूसरी 'क्रिया' की अकांक्षा को उत्पन्न करने की शक्ति उसमें हो। "क्रियान्ताराकांक्षोत्थापकता' रूप यह धर्म, 'साध्य' क्रिया में विद्यमान धर्म की अपेक्षा, एक विलक्षण धर्म है, अर्थात् 'साध्य' क्रिया या भाव में यह धर्म नहीं होता कि वह दूसरी 'किया' की आकांक्षा को उत्पन्न कर सके । जैसे-जब 'पाकः' कहा जाता है तो इस प्रकार की आकांक्षा उत्पन्न होती है कि इसके साथ अन्वित होने वाली 'क्रिया' कौन सी है ? इस रूप में दूसरी क्रिया की आकांक्षा की उत्थापकतारूप शक्ति 'पाकः' इत्यादि शब्दों में विद्यमान है।
कारकत्वेन क्रियान्वयित्वे सति-दूसरी विशेषता यह कि 'सिद्ध भाव के वाचक शब्द स्वयं 'कारक' के रूप में उपस्थित होते हैं और 'कारक' के रूप में ही वे क्रिया के साथ अन्वित होते हैं । जैसे-'पाकः' आदि शब्द किसी न किसी 'कारक' के रूप में 'अस्ति' इत्यादि कियाओं के साथ अन्वित होते हैं।
कारकान्तरान्वयायोग्यत्वम्-तीसरी विशेषता यह है कि, 'सिद्ध' भाव के वाचक ये शब्द स्वयं 'कारक' हैं इसलिये, इनका अन्वय किसी अन्य कारक' के साथ नहीं होता क्योंकि 'कारक' के साथ तो 'क्रिया' ही अन्वित हो सकती है, 'कारक' नहीं।
__ वस्तुत: जब 'क्रिया' समाप्त हो चुकी होती है तभी उसे 'सिद्ध' माना जाता है । क्रिया के 'सिद्ध' या पूर्ण हो जाने के कारण यहां वह द्रव्य का रूप धारण कर लेती है, क्रिया, क्रिया न रह कर, 'कारक' बन जाती है और अन्य क्रियाओं से अन्वित होने लगती है। परन्तु 'कारक' होने के कारण दूसरे ‘कारक' से सम्बद्ध होने की क्षमता उसमें नहीं रहती।
'सिद्ध' भावों के इस स्वरूप को बृहदेवताकार शौनक ने निम्नकारिका में व्यक्त किया है :--
क्रियाभिनिवृत्तिवशोपजातः कृदन्तशब्दाभिहितो यदा स्यात् । सङ्ख्या-विभक्ति-व्यय-लिंगयुक्तो भावस्तदा द्रव्यमिवोपलक्ष्यः ॥
(बृहदेवता १.४५) ___ 'सिद्धत्व' की जो परिभाषा ऊपर दी गयी उसकी तीन विशेषताओं में से यदि केवल अन्तिम को ही परिभाषा के रूप में प्रस्तुत किया जाता तो भी कार्य चल जाता परन्तु पूर्ण स्पष्टीकरण के लिये इन तोनों विशेषताओं का उल्लेख किया गया है।
साध्यत्वम् प्रवच्छेदकरूपवत्त्वम्-'सिद्धत्व' के ठीक विपरीत 'साध्यत्व' का स्वरूप है। यहां क्रियान्तर की आकांक्षा की उत्थापकता नहीं पायी जाती। 'साध्य' स्वयं 'क्रिया' है इसलिये उसमें दूसरी क्रिया की आकांक्षा स्वभावतः नहीं रहती, वे तो 'कारक' होते हैं जो क्रिया की अपेक्षा रखते हैं।
_ 'साध्य' भावों की दूसरी विशेषता यह है कि उन में 'कारकों' से अन्वित होने की योग्यता पायी जाती है क्योंकि, 'साध्य' भाव तो 'क्रिया' ही हैं इसलिये, वे 'कारकों' के साथ ही अन्वित हो सकते हैं (द्र० वैभूसा०, पृ० १०१) ।
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