Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा यास्क के "पाख्यात क्रिया-प्रधान होता है" इस कथन से विरोध उपस्थित होगा। साथ ही 'फल' का (कथन) 'धातु' से तथा उसके आश्रय ('कर्म') का ('फल' के द्वारा) आक्षेप होने से (दोनों के कथन का) लाभ हो जाने के कारण (पाणिनि का) “लः कर्मणि." यह सूत्र व्यर्थ हो जायगा।
मीमांसकों के मत में चौथा दोष यह है कि धातुओं की 'सकर्मकता' तथा अकर्मकता' विषयक व्यवस्था विशृङ्खलित हो जाएगी क्योंकि 'सकर्मक' तथा 'अकर्मक की परिभाषा 'व्यापार' को 'धातु' का अर्थ मानकर ही की गयी है । और वह है-"स्वार्थव्यापार-व्यधिकरण-फल-वाचकत्वं सकर्मकत्वम्" तथा "स्वार्थ-व्यापार-समानाधिकरणफल-वाचकत्वम् अकर्मकत्वम्", अर्थात् स्वार्थ (धात्वर्थ) रूप जो 'व्यापार' उसके अधिकरण अथवा आश्रय से भिन्न अधिकरण या आश्रय वाले 'फल' का वाचक धातु 'सकर्मक' है तथा 'व्यापार' के अधिकरण (आश्रय) में ही रहने वाले 'फल' का वाचक धातु 'अकर्मक' है।
नच...""कर्मत्वम् इति वाच्यम्-यहां मीमांसक यह कह सकते हैं कि इन परिभाषाओं में 'स्वार्थ' शब्द के स्थान पर 'प्रत्ययार्थ' शब्द रख देने से उपयुक्त व्यवस्था में दोष नहीं आता। इसी तरह 'कर्ता' तथा 'कर्म' की परिभाषाओं में भी 'प्रत्ययार्थ' शब्द रख कर उनकी व्यवस्था को निर्दोष बताया जा सकता है। वह इस रूप में कि प्रत्ययार्थभूत 'व्यापार' के आश्रय को 'कर्ता' और प्रत्ययार्थ 'व्यापार' से भिन्न अधिकरण वाले 'फल' के आश्रय को 'कर्म' माना जाये।
"प्रत्ययार्थ'-रूप 'व्यापार' का आश्रय 'कर्ता' है"-इस परिभाषा को मानने पर 'घटं भावयति' जैसे प्रयोगों में दोष आ सकता है क्योंकि वहां 'प्रत्ययार्थ' (प्रेषण व्यापार) का आश्रय घट नहीं है। और जब उसकी 'कर्ता' संज्ञा नहीं होगी तो “गतिबुद्धि०" (पा०१.४.५२) के अनुसार 'घट' 'कर्म' भी नहीं हो सकता क्योंकि इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि अण्यन्तावस्था में जो 'कर्ता' वही ण्यन्तावस्था में 'कर्म' बनता है। अतः 'कर्म' संज्ञा के अभाव में द्वितीया विभक्ति के न आने से 'घटं भावयति' प्रयोग नहीं बन सकेगा। परन्तु इस दोष का निराकरण इस रूप में किया जा सकता है कि "गतिबुद्धि०" सूत्र से 'घट' की 'कर्म' संज्ञा भले ही न हो, "कर्तुरीप्सिततमं कर्म" (पा० १.४.४६) के नियम से 'घट' की 'कर्म' संज्ञा हो जायगी क्योंकि 'रिणच् प्रत्यय का अर्थ जो प्रेषण 'व्यापार' उसके अधिकरण से भिन्न अधिकरण वाले 'फल' (उत्पत्ति) का घट आश्रय है।
अभिधानानभिधान'... 'यास्कवचोविरोधापतेः-'सकर्मक', 'अकर्मक' आदि की मीमांसक-प्रदर्शित उपर्युक्त व्यवस्था इसलिये मान्य नहीं है कि ऐसा मानने से पाणिनि की 'अनभिहित' तथा 'अभिहित' की व्यवस्था दूषित हो जायगी। पाणिनि ने “अनभिहिते" (पा ० २.३.१) सूत्र के अधिकार में "कर्मणि द्वितीया" (पा० २.३.२.) इत्यादि सूत्रों का प्रवचन कर के 'अनभिहित (अकथित या अनुक्त) 'कर्म' में द्वितीया विभक्ति तथा अनभिहित 'कर्ता' में तृतीया विभक्ति का विधान किया है । यदि 'तिङ' आदि प्रत्ययों का अर्थ, 'कर्ता' और 'कर्म' न मान कर, 'व्यापार' मान लिया गया तो 'कर्ता' और 'कर्म' कभी भी कथित होंगे ही नहीं क्योंकि प्रत्यय तो सदा 'व्यापार' को ही कहेगा।
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