Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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स्फोट-निरूपण
तेनैव क्रमेण व्यंजकरूप-रूषितता तस्य इति स्वीकारान् न 'सरो रसः' इत्यनयोरविशेषः" (लम०पृ० १८२-८३)।
नैयायिक अखण्ड एवं निरवयव 'स्फोट' को मानते ही नहीं इसलिये वे इस युक्ति द्वारा उपर्युक्त दोष का निराकरण नहीं कर सकते।
[नैयायिकों की बात का पतंजलि के कथन से विरोध]
उत्पत्ति-विनाशवद् वर्ण-समुदायरूप-पदस्य मनुष्यादिवद् भेदे "एक इन्द्र शब्दः क्रतुशते प्रादुर्भूतो युगपत् सर्वयागेष्वंगं
भवति" इति भाष्यविरोधापत्तेश्च । 'प्रादुर्भूतो'ऽभिव्यक्तः । उत्पत्ति तथा विनाश (इन धर्मों) से युक्त वर्गों के समुदाय रूप पद को, मनुष्य आदि के समान, परस्पर भिन्न भिन्न मानने पर "एक इन्द्र शब्द सौ यज्ञों में प्रगट होकर एक साथ सभी यागों में अङग (साधन) बनता है" इस भाष्य (के कथन) से विरोध उपस्थित होता है। (भाष्य को पंक्ति में) 'प्रादुर्भूतः' का अर्थ है अभिव्यक्त ।
उत्पत्ति तथा विनाश धर्म वाले वर्गों का समुदाय ही पद है ऐसा मानने वाले नैयायिकों के मत में जितनी बार एक शब्द का उच्चारण किया जायगा उतने भिन्न भिन्न शब्द मानने होंगे । यदि सौ बार 'इन्द्र' शब्द का उच्चारण किया गया तो सौ भिन्न भिन्न 'इन्द्र' शब्द मानने होंगे। इस प्रकार एक शब्द में, उच्चारण-भेद के कारण, विभिन्न -शब्दता को मानने पर भाष्यकार पतंजलि के उपर्युक्त कथन से स्पष्टत: विरोध उपस्थित होता है । क्योंकि वे 'इन्द्र' शब्द को एक मानते हुए उसे एक साथ सभी यागों में साधन मानते हैं । इसके अतिरिक्त उच्चारण-भेद के कारण भिन्न भिन्न हुए इन शब्दों से शक्तिग्रह या अर्थ-ज्ञान भी असम्भव हो जायगा, क्योंकि यहां भी प्रानन्त्य तथा व्यभिचार दोष उपस्थित होगा।
[वैयाकरणों के मत में वृत्तियों का प्राश्रय 'स्फोट']
ननु कस्तहि वृत्त्याश्रयः शब्दः ? स' स्फोटात्मक इति गृहाण। ननु कोयं स्फोट: ? उच्यते-चतुर्विधा हि वागस्ति-'परा',
१. तुलना करो-महा० १.२.६४;
तद् यथा एक इन्द्रशब्दोऽनेकस्मिन् ऋतशते आहतो युगपत् सर्वत्र भवति । २. ह. में 'स' अनुपलब्ध ।
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