Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा होने के कारण इस शब्द से द्विविध अर्थ की प्रतीति होती है, परन्तु इसका तात्पर्य' किस (अर्थ) में हैं ?" इस प्रकार के अनुभव से विरोध उपस्थित होता है, और इसीलिये ‘पय प्रानय' यह कहने पर जो प्रकरण को नहीं जानता उस (व्यक्ति) का 'दूध लाऊं या जल ?' यह प्रश्न सुसंगत होता है।
ईश्वरेच्छा तात्पर्यम्- यहाँ 'ईश्वर' पद को वक्ता मात्र का उपलक्षक मानना चाहिये । अन्यथा 'नदी', 'वृद्धि', 'टि', 'धु' जैसे पारिभाषिक शब्दों में ईश्वरेच्छा रूप 'तात्पर्य' के न होने के कारण 'शाब्दबोध' नहीं होना चाहिये । क्योंकि उस उस अर्थ के बोध की इच्छा से केवल सूत्रकार ने ही इन शब्दों का उच्चारण किया है । द्र०-"इदम् एतस्मिन् अर्थे अस्य अन्वयं प्रत्याययतु इति प्रयोक्तुर् इच्छा तात्पर्यम्" (न्यायमंजरी से न्यायकोश में उद्ध त)। 'धटम् प्रानय' यह वाक्य 'घड़ा लायो' इस अथ के ज्ञापन की इच्छा से उच्चरित हुया है, इस प्रकार का वक्ता का तात्पर्य होता है । जब श्रोता को वक्ता के इस 'तात्पर्य' का ज्ञान हो जाता है, अर्थात् जब श्रोता यह जान लेता है कि वक्ता ने इस 'तात्पर्य' की अभिव्यक्ति के लिये इस शब्द या वाक्य का प्रयोग किया है, तभी उसे उस शब्द-प्रयोग से इस अर्थ का ज्ञान होता है। इसीलिये 'तात्पर्य' ज्ञान को शाब्द-बोध में 'सहकारी' कारण माना जाता है ।
ननु प्रकरणादीनां संगच्छते-यहां इस प्रश्न द्वारा नागेश ने यह संकेतित किया है कि 'शाब्दबोध' में 'तात्पर्यज्ञान' को भी अनिवार्य रूप से 'सहकारी' कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि वक्ता के 'तात्पर्य' को जाने बिना भी प्रायः श्रोता को अर्थ का ज्ञान होता ही है। तुलना करो- "अन्ये तु नानार्थादौ क्वचिद् एव तात्पर्यज्ञानं कारणम् । तथा च शुकवाक्ये विनैव तात्पर्यज्ञानं शाब्दबोधः” (न्यायमुक्तावली-४.८४) 'तात्पर्यज्ञान की उपयोगिता वैयाकरण इस बात में अवश्य मानता है कि अनेकार्थक वाक्यों में तात्पर्य'-ज्ञान के द्वारा 'शाब्दबोध' की प्रामाणिकता का निश्चय होता है। जैसे जब 'गेहे सैन्धवम् अस्ति' कहा गया तो अप्रकरणज्ञ श्रोता को नमक तथा अश्व दोनों अर्थों का ज्ञान हुआ फिर 'प्रकरण' आदि के द्वारा नमक में ही वक्ता का तात्पर्य' है यह ज्ञान होने पर उससे नमक-विषयक 'शाब्दबोध' की प्रामाणिकता का निश्चय हो जायगा। वैयाकरणों की इस स्थिति का संकेत पतंजलि के निम्न वाक्य से मिलता है :-"अंग हि भवान् ग्राम्यं पांसुल-पादम् अप्रकरणज्ञम् आगतं ब्रवीतु 'गोपालकम् ग्रानय': 'करंजकम पानय' इति । उभयगतिस तस्य भवति । साधीयो वा यहिस्तं गमिष्यति" (महा० १.१.२२) इसका अभिप्राय यह है कि यदि गांव से सीधे प्राये हये, धूलि से सने पैर वाले तथा प्रकरण को न जानने वाले ग्रामीण से यह कहा जाय कि गोपाल को बुला लामो तो उसे या तो दोनों का-जिसका नाम गोपाल है तथा जो गायों का रक्षक (ग्वाला) है - बोध होगा । अथवा वह सीधे उस व्यक्ति को बुलाने चला जायगा जिसके हाथ में लाठी है तथा जो गायों का रक्षक (ग्वाला) है।
यहां स्पष्टतः पतंजलि ने यह स्वीकार किया है कि अप्रकरणज्ञ व्यक्ति को भी अर्थ का ज्ञान होता ही है-यह दूसरी बात है कि वह अनेकार्थक स्थलों में कभी कभी सन्दिग्ध रहता है। 'प्रकरण' तथा 'सामर्थ्य' के द्वारा वक्ता के 'तात्पर्य' का निर्णय होता है और उससे 'शाब्दबोध' की यथार्थता अथवा प्रामाणिकता का निश्चय होता है। इसलिये
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