Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम लघु-मंजूषा स्वरूप-ज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वाग् अनपायिनी।
(स्वोपज्ञटीका, १.१४३ में उद्धत)
अत्यधिक सूक्ष्म होने के कारण इसी 'परा' का दूसरा नाम 'सूक्ष्मा' भी है । इसी 'परा' को भर्तृहरि ने 'प्राप्तरूपविभागा' वाणी का 'परमरस' तथा 'पुण्यतम ज्योति' कहा है। (द्र०-वाप०, १.१२)
. भारतीय चिन्तकों, ऋषियों तथा योगियों की यह धारणा रही है कि वारणी का सूक्ष्मतम रूप एवं परम रहस्यभूत यह तत्त्व मानव-शरीर के मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी के रूप में रहता है तथा इसे ही 'आत्मा', 'चित्', 'सवित्' इत्यादि नामों से कहा गया है। यह 'परा' वाणी ही जगत् का उपादान कारण है तथा इसे ही सूक्ष्म स्फोट भी कहा जाता है। प्राण वायु का संयोग होने पर 'पश्यन्ती', मध्यमा' आदि विविध रूपों में इसका विवर्तन होता है । 'परा' को निष्पन्द तथा अन्य तीन 'पश्यन्ती' आदि को सस्पन्द माना जाता है। द्र०--"वर्णादि-विशेषरहिता चेतन मिश्रा सृष्ट्युपयोगिनी जगदुपादानकारणभूता कुण्डलिनीरूपेण प्राणिनां मूलाधारे वर्तते। कुण्डलिन्याः प्राणवायुसंयोगे परा व्यज्यते । इयं निष्पन्दा । पश्यन्त्यादयः सस्पन्दा अस्या विवर्ताः । इयम् एव सूक्ष्मः स्फोट उच्यते" (ए डिक्शनरी अाफ़ संस्कृत ग्रामर में उद्ध त)।
___ इस 'परा' का उल्लेख भर्तृहरि ने अपनी कारिकाओं में स्पष्टतःकहीं नहीं किया है । अपनी एक कारिका (१.१४३) में उन्होंने केवल तीन 'पश्यन्ती' 'मध्यमा' तथा 'वैखरी' का नाम गिनाया है तथा वाणी को त्रिविध घोषित किया है । इसी कारण भर्तृहरि को कुछ विद्वान् केवल त्रिविध वाणी का ही पोषक मानते । परन्तु यह धारणा सत्य नहीं प्रतीत होती । भर्तृहरि को चतुर्विध वारणी अभिमत होने पर भी 'परा' का उल्लेख उन्हों ने संभवतः इसलिये नहीं किया कि 'परा' व्याकरण का विषय नहीं हो सकती। सामान्यतया तो 'पश्यन्ती' भी व्याकरण का विषय नहीं है। परन्तु योगियों को वाणी की 'पश्यन्ती' अवस्था में शब्दों की प्रकृति प्रत्यय का ज्ञान हो जाता है। इसलिये 'पश्यन्ती' का उल्लेख तो भर्तृहरि ने किया, परन्तु 'परा' का उल्लेख नहीं किया। इस तथ्य का उल्लेख नागेश भट्ट ने महाभाष्य की 'उद्द्योत' टीका में निम्न शब्दों में किया है—“मध्यमा' हृदय-देशस्था पद-प्रत्यक्षानुपपत्त्या व्यवहार-कारणम् । 'पश्यन्ती' तु लोक-व्यवहारातीता । योगिनां तु तत्रापि प्रकृति-प्रत्यय-विभागावगतिरस्ति । 'परायां' तु नेति 'त्रय्याः' इत्युक्तम्' (महाभाष्य, भा० १, पृ० ३३) ।
नागेश ने इस स्थिति का स्पष्टीकरण लधुमंजूषा (पृ० १७४ तथा १७८) में भी किया है। इस विषय के विस्तृत अध्ययन की दृष्टि से द्रष्टव्य मेरे लेख 'चतुर्विधाया वाचः स्वरूप निवृत्तिः' (विश्वसंस्कृतम्, अगस्त ६४) तथा 'चत्वारि वाक्परिमिता पदानि इत्यत्र भर्तृहरिः' (विश्वसंस्कृतम्, फरवरी ६६) ।
नागेश ने यहां 'परा' को 'मूलाधारस्थ-पवन-संस्कारीभूता' अर्थात् मूलाधार चक्र में रहने वाली वायु से संस्कृत माना है । ज्ञात अर्थ को बताने की अभिलाषा वाले व्यक्ति
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