Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-जंजूषा
नैयायिकों ने, वर्णों को अनित्य एवं अर्थ का वाचक मानते हुए, शाब्दबोध की प्रक्रिया पर विचार किया है तथा इस विषय में तीन पद्धतियां प्रदर्शित की हैं। पहली पद्धति या विकल्प में उनका कहना यह है कि जब किसी शब्द का उच्चारण किया जाता है तो श्रोता जिन वर्गों के उच्चारण को सुन चुका होता है उनका भी संस्कार उनकी बुद्धि में बना रहता है । इस संस्कार के द्वारा, बाद बाद के वर्णों के उच्चारण के समय भी पहले पहले के उच्चरित वर्ण गृहीत होते जाते हैं, क्योंकि उन पहले उच्चरित वर्णों के तुरन्त पश्चात् बाद में उच्चरित होने वाले इन वर्णों का उच्चारण किया जाता है। जैसे 'राम' कहते समय 'र्', 'आ' 'म्', 'अ' इन चार वर्णों का उच्चारण वक्ता क्रमशः करेगा। यहां 'र्' को सुनने से जो संस्कार बना वह उसके तुरन्त बाद बोले जाने वाले 'आ' के उच्चारण के समय स्मृत होगा तथा इसी प्रकार इन दोनों वर्णों के बाद जब 'म्' कहा जायगा तब 'र्' तथा 'आ' दोनों के संस्कार श्रंता की बुद्धि विद्यमान होंगे ।
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इस प्रकार उत्तरोत्तर वर्णों के साथ पूर्व पूर्व वर्णों के स्मृत या गृर्हत होने के कारण पूरा पूरा पद एक तरह से प्रत्यक्ष हो जाता है जिससे शाब्दबोध हुआ करता है। यहां व्यवधान रहित उत्तरकालीनता के सम्बन्ध के कारणत्रण का एक विशिष्ट क्रम भी बुद्धि में बना रहता है । इसलिये 'सरो' 'रस' या 'नदः' 'दीन' इत्यादि परस्पर विपरीत क्रम वाले शब्दों में एक समान ज्ञान नहीं होता ।
दूसरी पद्धति यह है कि 'शब्दजशब्द' न्याय से, अर्थात् जैसे भेरी का एक शब्द या ध्वनि उत्पन्न हो कर अपने विनाश से पूर्व दूसरी ध्वनि को उत्पन्न कर जाती है सी प्रकार, पहले पहले उच्चरित वर्ण तब तक अपने समान ध्वनि को उत्पन्न करा रहते हैं जब तक श्रोता को अन्तिम वर्ण नहीं सुनाई दे जाता । इस तरह अन्तिम वर के श्रवण-काल तक, पहले पहले के उच्चरित वर्णों के उत्पन्न होते रहने के कारण, पूरा पद सुनाई दे जाता है— प्रत्यक्ष हो जाता है ।
तीसरी पद्धति यह है कि पूर्व पूर्व के सब वर्णों के श्रवण से उत्पन्न जो संस्कार उनके साथ अन्तिम वर्ण का श्रवण होने से शाब्द बोध होता है। यहां पहले के वर्णों का जो एक सामूहिक संस्कार है, जिसके साथ अन्तिम वर्ण के श्रवण से अर्थ-प्रतीति होती है, उसमें कोई विशिष्ट क्रम भी रहता है ऐसी निश्चित प्रतीति नहीं होती । नैयायिकों की इस पद्धति का उल्लेख तर्कभाषा ( शब्दनिरूपण) में निम्न शब्दों में मिलता है : - " पूर्व - पूर्व- वर्णान् अनुभूय अन्त्यवर्ण-श्रवणकाले पूर्व-पूर्व-वर्णानुभवजनितसंस्कार सहकृतेन अन्त्यवर्ण-सम्बन्धेन पदव्युत्पादन - समय ग्रहानुगृहीतेन श्रोत्रेण एकदैव सदसदनेकवर्णावगाहिनी पद-प्रतीतिर्जन्यते सहकारिदादर्ग्यात् प्रत्यभिज्ञानवत्" ।
न्यायसिद्धान्तमुक्तावली ( प्रासत्तिनिरूपण) में इसी बात को संक्षेप में निम्न शब्दों में कहा गया है : –“ तत्तदुद्वर्णसंस्कारसहितचरमवर्णोपलम्भेन तदूव्यंजकेनैवोपपत्तेः” ।
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