Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा (सूत्रों) के, "तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य" (पा० १.१. ६६) इस परिभाषा (सूत्र) के द्वारा, परिष्कृत वाक्थार्थ में, प्रत्यक्ष-विषयक 'इदम्' (सर्व नाम) शब्द से 'यह पहले है,' तथा 'यह बाद में है' इस तरह का पौर्वापर्य व्यवहार नहीं बन सकेगा।
मीमांसक वर्णों को नित्य मानते हैं तथा उन्हें अर्थ का वाचक मानते है। इसीलिये 'गौः इत्यत्र कः शब्द: ?' ('गौः' इस प्रयोग में शब्द क्या है ?) इस प्रश्न के उत्तर में शबर स्वामी ने कहा-“गकारौकार विसर्जनीयाः इति भगवान् उपवर्षः" (मोमांसा शाबर वृत्ति १. १. ५) अर्थात्-'ग्' 'औ' तथा विसर्ग इन्हें मीमांसा के प्राचीन आचार्य उपवर्ष, 'गौः' इस प्रयोग में शब्द मानते हैं।
इस रूप में मीमांसक दार्शनिकों के मत के अनुसार यदि वर्गों को ही वृत्तियों का आश्रय या अर्थ का वाचक माना जाय तो दो विकल्प उपस्थित होते हैं--(क) शब्द में विद्यमान प्रत्येक वर्ण को अर्थ का वाचक माना जाय, अथवा (ख) वर्गों के समुदाय अर्थात् पूरे पद को अर्थ का वाचक माना जाय? इनमें से प्रथम विकल्प तो इसलिये अस्वीकार्य है कि यदि पद के प्रत्येक वर्ण उस अभीष्ट अर्थ के वाचक हैं तो, शब्द के प्रथम वर्ण के उच्चारण से अर्थ की उपस्थिति हो जाने के कारण, अन्य द्वितीय, तृतीय आदि वर्णों का उच्चारण अनावश्यक हो जायेगा।
दूसरे विकल्प-'वर्ण-समुदाय की अर्थवाचकता' में यह कठिनाई है कि वर्णों की स्थिति ऐसी है कि वे उच्चरित होते हैं, एक क्षरण रहते हैं और उसके बाद वाले क्षण में नष्ट हो जाते हैं। इस तरह उच्चरित-प्रध्वंसी स्वभाव वाला होने के कारण वर्गों का समुदाय ही नहीं बन सकता । अतः वर्णों के समुदाय या पद को, जिस की स्थिति ही सम्भव नहीं है, अर्थ का वाचक कैसे माना जाय ?
यहां यह पूछा जा सकता है कि वर्ण एक क्षण तो रहते ही हैं फिर उनका समुदाय बनने में क्या कठिनाई है ? इस प्रश्न का उत्तर यहां यह दिया गया कि, चाहे मीमांसकों के अनुसार वर्णों को नित्य मानते हुए यह कहा जाय कि वर्ण अभिव्यक्त होते हैं अथवा, नैयायिकों के अनुसार वर्गों को अनित्य मानते हुए, यह कहा जाय कि वर्ण उत्पन्न होते हैं-इन दोनों ही स्थितियों में वर्ण की अभिव्यक्ति या उत्पत्ति क्षणिक है । 'क्षरण है काल का सबसे छोटा विभाग, जिस तरह पथ्वी आदि का सबसे छोटा विभाग परमाण है। यह क्षणात्मक काल प्रत्यक्ष योग्य नहीं है । अपने आधारभूत क्षण रूप काल के अप्रत्यक्ष होने के कारण आधेयभूत वर्ण की अभिव्यक्ति या उत्पत्ति भी प्रत्यक्ष-योग्य नहीं हो सकती।
वर्णों को उच्चरित तथा प्रध्वंसी कहने का भी अभिप्राय यही है कि जिस समय वे उच्चरित होते हैं उस समय के दूसरे क्षण में वे नहीं रहते । इस तथ्य को महाभाष्यकार पतंजलि ने निम्न शब्दों से प्रकट किया है
“एकैक-वर्ण-वर्तिनी वाग् न द्वौ युगपद् उच्चारयति । 'गौः' इति गकारे यावद् वाग् वर्तते न औकारे न विसर्जनीये । यावद् विसर्जनीये न गकारे न ओकारे । उच्चरितप्रध्वंसित्वात् । उच्चरित-प्रध्वंसिनः खल्वपि वर्णाः" (महाभाष्य, १. ४. १०६) ।
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