Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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व्यंजना-निरूपणम्
[व्यंजना का स्वरूप]
ननु व्यंजना कः पदार्थः ? उच्यते-मुख्यार्थ-बाध-निरपेक्षबोध-जनको, मुख्यार्थ-सम्बद्धासम्बद्ध-साधारणः, प्रसिद्धाप्रसिद्धार्थ-विषयकः, वक्त्रादि-वैशिष्ट्य-ज्ञान-प्रतिभाशुद्बुद्धः, संस्कारविशेषो व्यंजना ।
_ 'व्यंजना' शब्द का क्या अर्थ है ? (यह) कहा जाता है-(क) वाच्यार्थ की अनुपपत्ति की अपेक्षा किये बिना ही बोध कराने वाला, (ख) वाच्यार्थ से सम्बद्ध एवं असम्बद्ध दोनों (स्थितियों) में समानरूप से रहने वाला, (ग) प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध दोनों (प्रकार के) अर्थों का बोधक (तथा) (घ) वक्ता आदि की विशेषता के ज्ञान और प्रतिभा आदि से जागृत होने वाला संस्कार-विशेष' (ही) व्यंजना है।
मुख्यार्थ........"सम्बद्धासम्बद्धसाधारणः- 'व्यंजना' की परिभाषा के स्वरूप को बताते हुए यहाँ 'व्यंजना' की चार विशेषताओं का उल्लेख किया गया है। इनमें से प्रथम तथा द्वितीय विशेषताओं के द्वारा नैयायिकों के इस कथन का निराकरण हो जाता है कि 'लक्षणावृत्ति' से ही 'व्यंजनावृत्ति' का कार्य चल जायगा। अत: 'व्यंजना' को वृत्ति मानने की आवश्कता नहीं है।' क्योंकि 'लक्षणावृत्ति' के लिये मुख्यार्थ की बाधा का ज्ञान होना आवश्यक है तथा 'लक्ष्य' अर्थ मुख्य अर्थ से सम्बद्ध ही हुआ करता है । परन्तु 'व्यंजना' के लिये मुख्यार्थ की बाधा का ज्ञान आवश्यक नहीं है। साथ ही व्यंग्य अर्थ मुख्य या वाच्य-अर्थ से सम्बद्ध भी हो सकता है तथा असम्बद्ध भी। जैसे'लक्षणामूलक-व्यंजना' के स्थलों-गङ्गायां घोषः' इत्यादि प्रयोगों-- में 'गङ्गा' शब्द से 'लक्ष्य' अर्थ (तट) का बोध कराने के लिये मुख्यार्थबाध का ज्ञान अपेक्षित है तथा 'तट' रूप जो लक्ष्यार्थ है वह मुख्यार्थ (गङ्गा-प्रवाह) से सम्बद्ध है। किन्तु यहां जो 'व्यंजना' द्वारा शैत्यत्व, पावनत्व आदि की प्रतीति होती है, उस 'व्यङ्ग्य' अर्थ के ज्ञान के लिये मुख्यार्थबाध के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। यहाँ का 'व्यङ्ग्य' अर्थ-शैत्यत्व, पावनत्व आदि-मुख्यार्थ (प्रवाह) से सम्बद्ध है। लेकिन कहीं-कहीं यह व्यङ्ग्यार्थ मुख्यार्थ से असम्बद्ध भी सकता है। जैसे 'व्यंजना' के 'अत्यंततिरस्कृतवाच्य' नामक भेद के सभी उदाहरणों में व्यंग्यार्थ का वाच्यार्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । 'व्यंजना' के इस भेद में वाच्यार्थ के सर्वथा तिरस्कृत (अग्राह्य) होने के कारण ही उसका यह सार्थक नाम रखा गया। इसका उदाहरण है --
रविसंक्रान्त-सौभाग्यस् तुषारावृतमण्डलः । निश्वासान्ध इवादर्शश् चंद्रमा न प्रकाशते ॥
(ध्वन्यालोक, पृ० १०१, में उद्धृत)
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