Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा एकम् प्राहुर अनेकार्थ शब्दम् अन्ये परीक्षकाः । निमित्तभेदाद् एकस्य सार्थ्यं तस्य भिद्यते ।। २. २५२ यथा सास्नादिमान् पिण्डो गोशब्देनाभिधीयते । तथा स एव शब्दो वाहीकेऽपि व्यवस्थितः ॥ २.२५४ सर्वशक्तेस्तु तस्यैव शब्दस्यानेकधर्मणः। प्रसिद्धिभेदाद् गौणत्वं मुख्यत्वं चोपचर्यते ॥ २.२५५
वस्तुतः गौरण तथा मुख्य दोनों प्रकार के अर्थों का कथन उसी एक शब्द से होता है। प्रकरण आदि विभिन्न हेतुओं के कारण एक साथ किसी अर्थों का प्रकाशन शब्द से नहीं हो पाता। इसलिये यही मानना चाहिये कि जिस प्रकार 'गौ' शब्द 'गाय' अर्थ का वाचक है उसी प्रकार वह, 'गौर्वाहीकः' इत्यादि प्रयोगों में, वाहीक अर्थ का भी वाचक है।
वृत्तिद्वयावच्छेदक-कल्पने गौरवात्-इस के अतिरिक्त लक्षणा वृत्ति को मानने में यह दोष भी है कि दो-- 'अभिधा' तथा 'लक्षणा'-वृत्तियाँ मानने के कारण दो प्रकार के कार्य-कारण-भाव की कल्पना करनी पड़ेगी। 'शक्ति' या 'अभिधा' से होने वाले शाब्द बोध के प्रति शक्ति-ज्ञान-जन्य अर्थोपस्थिति को कारण मानना होगा तथा 'लक्षणा वृत्ति' से होने वाले शाब्द बोध के प्रति 'लक्षणा'-ज्ञान-जन्य अर्थोपस्थिति को कारण मानना होगा । तुलना करो-"शाब्दबोधं प्रति शक्ति-जन्योपस्थितेः लक्षणाजन्योपस्थितेश्च कारणत्वं वाच्यम् । तथा च कार्य-कारण-भाव-द्वय-कल्पने गौरवं स्यात् । अस्माकं पुनः शक्तिजन्योपस्थितित्वेनैव हेतुता इति लाघवम्" । (वभूसा०, शक्तिनिर्णय, पृ० ३२५)
___ जघन्यवृत्ति-कल्पनाया अन्याय्यत्वाच्च-इसके अतिरिक्त लक्षणा वृत्ति को मानने में अनौचित्य दोष भी है, क्योंकि प्रमुख अभिधा वृत्ति की उपेक्षा करके गौण एवं इस कारण, जघन्य लक्षणा वृत्ति की कल्पना अनुचित है।
वस्तुतः 'शक्ति' अथवा अभिधा वृत्ति के ग्राहक या बोधक जो, व्याकरण, उपमान इत्यादि, हेतु कहे गये हैं उनमें लोक-व्यवहार ही प्रमुख हेतु है। वह लोक-व्यवहार वाच्य तथा लक्ष्य दोनों ही अर्थों में समान रूप से दिखाई देता है। बोलने वाले 'प्रवाह' तथा 'तट' इन दोनों ही अर्थों में समान रूप से 'गंगा' शब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिये वैयाकरणों का यह मत है कि वाच्य तथा लक्ष्य दोनों ही अर्थों को शब्द अपनी अभिधा वृत्ति से ही कहता है ।
['लक्षणा' वृत्ति के प्रभाव में उपस्थित होने वाले दोषों का समाधान]
कथं तर्हि गंगादि-पदात् तीरादि'-प्रत्ययः । भ्रान्तोऽसि । "सति तात्पर्य सर्वे सर्वार्थ-वाच काः” इति भाष्यमेव
१. प्रकाशित संस्करणों में 'तीरप्रत्ययः' ।
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