Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा इस लक्षणा को प्राचार्य विश्वनाथ प्रादि 'उपादान लक्षणा' कहते हैं-उसका भी अभिप्राय यही है । द्र०--
मुख्यार्थस्येतराक्षेपो वाक्यार्थेऽन्वयसिद्धये । स्याद् प्रात्मनोऽप्युपादानाद् एषोपादानलक्षरणा ॥
(साहित्यदर्पण २.१०)
['जहत्स्वार्था' लक्षणा को परिभाषा]
स्वार्थपरित्यागेन इतरार्थाभिधायिका अन्त्या। तत्परित्यागश्च शक्यार्थस्य लक्ष्यार्थान्वयिना अनन्वयित्वम् । तेन ‘गां वाहीकं पाठय' इत्यादौ गोसदृशलक्षणायाम् अपि न गोस्तदन्वयि-पाठन'-क्रियान्वयित्वम् ।
अपने (वाच्य) अर्थ का सर्वथा परित्याग करके दूसरे (लक्ष्य) अर्थ को बताने वाली अन्तिम (जहत्स्वार्था) है। अपने (वाच्य) अर्थ के परित्याग का अभिप्राय है लक्ष्यार्थ से अन्वित (सम्बद्ध) होने वाले (क्रिया आदि) के साथ शक्यार्थ का अन्वित न होना। इसलिये 'बैल वाहीक (जड़ एवं मन्द बुद्धि वाले वाहीक) को पढ़ानो' इत्यादि कथन में 'बैल सदृश' अर्थ में लक्षणा होने पर भी, लक्ष्यार्थ (वाहीक) से अन्वित होने वाली पाठन क्रिया के साथ बैल (रूप वाच्यार्थ) का अन्वय नहीं होता।
__ जहत्स्वार्था-वाक्यार्थ में लक्ष्यार्थ की पूरी सङ्गति हो सके इसके लिये शब्द जब अपने स्वार्थ या वाच्यार्थ का परित्याग कर देता है तो, अपने अर्थ का परित्याग कर देने के कारण ही, उस लक्षण को 'जहत्स्वार्था' कहा जाता है। जैसे-'बैल (रूप) वाहीक को पढ़ाओ'। यहाँ 'पाठन' क्रिया के साथ बैल की संगति नहीं लग सकती। इस लिये 'गौ' शब्द अपने वाच्यार्थ (बैल) का परित्याग कर देता है, और केवल बैल में विद्यमान जाड्य, मान्द्य आदि सदृश जाड्य, मान्द्य आदि गुणों वाले, वाहीक (वाहीक प्रदेश में रहने वाले प्रादमी) को कहता है, जिसके साथ 'पठन' क्रिया की संगति लग जाती है।
'जहत्स्वार्था' शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है-"जहति परित्यजन्ति स्वानि (पदानि) यम् (अर्थ) स जहत्स्वो (अर्थः) । जहत्स्वो अर्थों यस्या लक्षणायाः सा जहत्स्वार्था", अर्थात् शब्द जिस लक्षणा में अपने अर्थ का परित्याग कर दें वह 'जहत्स्वार्था लक्षणा' है। इस 'जहत्स्वार्था' को अलंकार शास्त्र के प्राचार्य 'लक्षण-लक्षणा' कहते हैं, जिसमें 'लक्षण' शब्द का अभिप्राय है 'उपलक्षण' अथवा 'स्वार्थ-परित्याग' । द्र०
१.
हस्तलेखों में- 'पठन'।
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