Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धांत-परम- लघु-मंजूषा
अंश-त्यागः किंचिद् अंश - परिग्रहश्च । अत्र ग्रामैकदेशे दग्धे 'पटो दग्ध:' इति व्यवहारः । " तत् त्वम् प्रसि" (छान्दो० उप० ६. ८.७) इत्यत्र सर्वज्ञत्वात्पज्ञत्वयोस् त्यागः, शुद्धचैतन्ययोर् प्रभेदान्वयः ।
विशिष्ट अर्थ के बोधक शब्द की ( अपने ) शब्दार्थ के एक भाग में होने वाली लक्षणा के लिये 'जहद् प्रजहल्लक्षणा' इस (शब्द) का प्रयोग वृद्ध (वेदान्ती विद्वान् ) करते हैं। क्योंकि यहाँ वाच्यार्थ में किसी अंश का त्याग तथा किसी अंश का परिग्रहण किया जाता है । इस (लक्षणा में ग्राम या वस्त्र के एक भाग के जल जाने पर 'ग्राम या वस्त्र जल गया' इस प्रकार का व्यवहार होता है । इसी प्रकार " तत् त्वम् असि " - वह (सर्वज्ञ चैतन्य) तुम (अल्पज्ञ चैतन्य ) हो - इस प्रयोग में सर्वज्ञत्व तथा अल्पज्ञत्व ( इस वाच्यार्थांश) का त्याग तथा शुद्ध चैतन्यों का अभेद रूप से अन्वय किया गया है ।
कुछ नैयायिक तथा वेदान्ती विद्वान् एक तीसरे प्रकार की लक्षणा भी मानते हैं तथा उसे वे 'जहद् प्रजहल्लक्षणा' नाम देते हैं । इस नाम की व्युत्पत्ति की जाती है" जहति प्रजहति च पदानि स्ववाच्यार्थं यस्यां सा", अर्थात् जिस लक्षणा में पद या शब्द अपने वाच्यार्थ के कुछ अंश का परित्याग कर दें तथा कुछ अंश का बोध कराते रहें । यहाँ शब्द, 'जहल्लक्षणा' के समान, न तो सम्पूर्ण वाच्यार्थ को छोड़ ही देता है और न ही 'अजहल्लक्षणा' के समान सम्पूर्ण वाच्यार्थ का बोध ही कराता है ।
इस लक्षणा के उदाहरण के रूप में 'ग्रामो दग्ध:' 'पटो दग्ध:' इत्यादि प्रयोग प्रस्तुत किये जाते हैं। पूरे ग्राम या वस्त्र के न जलने पर भी 'ग्राम जल गया', 'वस्त्र जल गया' ये प्रयोग होते ही हैं । यहाँ 'ग्राम' या 'वस्त्र' के वाक्यांश (सम्पूर्ण ग्राम या वस्त्र) में से कुछ अंश ( जितना जल गया है) का ग्रहरण किया गया तथा कुछ अंश (जो नहीं जला है) का परित्याग कर दिया गया । इसी तरह जब जीव तथा ब्रह्म की प्रभिन्नता प्रतिपादित करते हुए " तत् त्वम् प्रसि" (तुम, अर्थात् जीवरूप अल्पज्ञ चैतन्य, वह, अर्थात् ब्रह्मरूप सर्वज्ञ चैतन्य हो) वाक्य की व्याख्या वेदान्ती विद्वान् करते हैं तो वे यहाँ भी यही 'जहदजहल्लक्षणा' वृत्ति मानते हैं। क्योंकि यहाँ 'तत्' के वाच्यार्थ (सर्वज्ञ चैतन्य) के एक अंश ( सर्वज्ञत्व) का तथा 'त्वम्' के वाच्यार्थ (अल्पज्ञ चैतन्य ) के एक अंश (अल्पज्ञत्व) का परित्याग कर दिया गया है । इस कारण इन दोनों पदों से वाच्यार्थ के एक एक अंश (चैतन्यत्व) का बोध होता और इस तरह दोनों को अभिन्न मान लिया जाता है। इस 'जहदजहल्लक्षरणा' को ही वेदान्त के प्राचीन विद्यारण्य आदि विद्वानों ने 'भाग- लक्षणा' नाम दिया है ।
परन्तु वेदान्त के ही कुछ अन्य विद्वान् 'लक्षणा' के इस तीसरे प्रकार को नहीं मानते। उनका कहना है कि जिस प्रकार 'घटोऽनित्य:' ( घड़ा अनित्य है) इस वाक्य में अनित्यत्व का घट के वाच्यार्थ के एक देश 'घटत्व' के साथ अन्वय न हो सकने पर भी
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