Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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लक्षणा-निरूपण
विशेष्यभूत घट (व्यक्ति) में अन्वय हो जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट चैतन्यों में अभेदान्वय न हो सकने पर भी 'अभिधावृत्ति' से उपस्थापित वाच्यार्थभूत विशेष्यरूप चैतन्यों में परस्पर अन्वय हो जायगा। अतः 'लक्षणा' मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । द्र० ---- "वयं तु ब्रमः 'सोऽयं देवदत्तः', 'तत्त्वमसि' इत्यादौ विशिष्टवाचकपदानाम् एकदेशपरत्वेऽपि न लक्षणा शक्त्युपस्थितयोः विशिष्टयोरभेदान्वयानुपपत्तौ विशेष्ययोः शक्त्युपस्थितयोरेव अभेदान्वयाऽविरोधात् । यथा 'घटोऽनित्यः' इत्यत्र घटपदवाच्यैकदेशघटत्वस्य अयोग्यघटव्यक्त्या सह अनित्यत्वान्वयः” (वेदान्तपरिभाषा, आगमपरिच्छेद)।
महाभाष्यकार पतंजलि को भी यह 'लक्षणा,' कथमपि, अभिमत नहीं है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि पूरे समुदाय को कहने वाले शब्द उस समुदाय के अवयव को कहने के लिये भी प्रयुक्त होते हैं- "समुदायेषु हि शब्दा: प्रवृत्ता अवयवेष्वपि वर्तन्ते । पूर्वे पंचालाः, उत्तरे पंचालाः, तैलं भुक्तम्, घृतं भुक्तम् शुक्लो नीलः कपिलः कृष्णः इति" (महा० भाग १, पृ० ७१)। 'पंचाल' का वाच्यार्थ पूरा प्रान्त है, परन्तु उसका प्रयोग उस प्रान्त के पूर्वी तथा उत्तरी हिस्सों के लिये भी होता है। इसी तरह किसी विशिष्ट परिमाण वाले घृत तथा तेल की कुछ थोड़ी सी मात्रा के खाने पर भी 'घृतं भुक्ते', 'तैलं भुक्ते' इत्यादि प्रयोग होते हैं। इसी प्रकार किसी अवयव मात्र के भी शुक्ल अथवा नील या पीत होने पर उस सम्पूर्ण पदार्थ अथवा प्राणी को शुक्ल, नील, पीत कह दिया जाता है। "अर्थवद् आधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्" (पा० १.२.४५) सूत्र की व्याख्या में तो 'ग्रामो दग्धः' तथा 'पुष्पितं वनम् जैसे प्रयोगों का ही उल्लेख करते हुए 'दग्धः'
आदि शब्दों में "अर्श आदिभ्योऽच्" (पा० ५.२.१२७) सूत्र से विहित 'अच्' प्रत्यय की कल्पना करके पतंजलि ने इस प्रकार के प्रयोगों में 'लक्षणा' का ही निषेध कर दिया है । क्योंकि 'अच्' प्रत्यय मानने पर 'दग्धो अस्यास्तीति दग्धः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'इस ग्राम का कोई अवयव जला है' यह 'ग्रामो दग्ध:' का अभिधेय अर्थ ही होगा। नागेशभट्ट ने लघुमंजूषा में "ईदृशेषु जहद्-अजहल्लक्षणेत्यन्ये" कह कर इस 'जहद्-अजल्लक्षणा' को अपनी दृष्टि से अस्वीकार्य माना है (द्र० - लघुमंजूषा, पृ०, १०२) ।
[मीमांसकों के द्वारा लक्षणा की एक दूसरी परिभाषा]
"स्व-बोध्य-सम्बन्धो लक्षणा” इति केचित् । ‘गभीरायां नद्यां घोषः' इत्याद्यनुरोधात् । तथाहि न तावद 'गभीर'पदं तीर-लक्षकम् । 'नद्याम्' इत्यनन्वयापत्त: । नहि तीरं नदी। अत एव न 'नदी'-पदेऽपि, ‘गभीर'-पदार्थनन्वयात् । नहि तीरं गभीरम् । न च प्रत्येकं पदद्वये सा । विशिष्ट
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