Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शक्ति-निरूपण
[अर्थ भेद के आधार पर शब्द-भेद या 'अनेक शब्दता' तथा प्राकार-साम्य के आधार पर 'एक शब्दता' का व्यवहार]
अर्थ-पदयोस् तादात्म्यात्' तत्-तद्-अर्थ-तादात्म्यापन्नः शब्दो भिन्न इति हेतोः अर्थ-भेदात् शब्द-भेदः इति व्यवहारः । समानाकार-मात्रेण तु एकोऽयं शब्दो बह्वर्थः, इति व्यवहारः ।
अर्थ तथा शब्द के तादात्म्य के कारण (ही) उन उन (अपने अपने विशिष्ट) अर्थों के साथ अभेद को प्राप्त हुआ शब्द (दूसरे शब्द से) भिन्न हो जाता है। इस कारण "अर्थ की भिन्नता के आधार पर शब्दों में भिन्नता होती है" ऐसा व्यवहार होता है। (परन्तु) आकार (अथवा रूप) की समानता के कारण "यह एक शब्द अनेक अर्थों वाला है" यह व्यवहार भी होता है।
शब्दों का अपने अपने विशिष्ट, अर्थ के साथ अभेद रूप से अन्वय हो जाने के कारण प्रत्येक शब्द दूसरे शब्द से भिन्न हो जाता है। इसलिये अर्थ की भिन्नता के आधार पर शब्दों में भी भिन्नता आ जाती है। अर्थकृत इस भिन्नता के कारण शब्दों में जो भिन्नता की प्रतीति होती है उसके कारण ही 'शब्दनानात्ववाद' अथवा 'अर्थ भेद से शब्द भेद' पक्ष की प्रतिष्ठापना की गयी। इसी दृष्टि से पतंजलि ने दो बार महाभाष्य में निम्न वाक्य कहे :-"ग्राम शब्दोऽयं बह्वर्थः । अस्त्येव शालासमुदाये वर्तते । तद् यथा—'ग्रामो दग्धः' इति । अस्ति वाट-परिक्षेपे वर्तते । तद् यथा'ग्रामं प्रविष्टः'। अस्ति मनुष्येषु वर्तते । तद् यथा-'ग्रामो गतः', 'ग्राम पागतः' इति । अस्ति सारण्यके ससीमके सस्थण्डलिके वर्तते । तद् यथा-'ग्रामो लब्धः' इति । तत् यः सारण्यके ससीमके सस्थण्डलिके वर्तते तम् अभिसमीक्ष्य एतत् प्रयुज्यते 'अनन्तराव इमौ ग्रामौ' इति । महा० (१.१.७ तथा २०)। यहां की व्याख्या करते हुए कैयट ने यह स्पष्ट किया है कि 'कुछ लोग अर्थ की भिन्नता के आधार पर एक शब्द में भी भिन्नता की कल्पना कर लेते हैं । दूसरे विद्वान् अर्थ की भिन्नता के रहने पर भी एकशब्दता ही मानना चाहते हैं। भेदपक्ष अथवा व्यक्तिपक्ष का आश्रयण करके ग्राम शब्दोऽयं बह्वर्थः इत्यादि भाष्यकार ने कहा है।
परन्तु अर्थभेद के कारण शब्दभेद के सिद्धान्त के साथ साथ शब्द के रूप अथवा आकार की एकता के कारण एक दूसरे सिद्धान्त 'शब्दकत्ववाद' अथवा अभेदपक्ष की भी प्रतिष्ठापना हुई। यहां की-"समानाकारमात्रेण तु एकोऽयं शब्दो बह्वर्थः" इस पंक्ति में नागेश ने इसी सिद्धान्त की ओर संकेत किया है। पतंजलि ने भी इस सिद्धान्त की दृष्टि से ही 'एकश्च शब्दो बह्वर्थो प्रक्षाः पादाः माषा: (महा० १.२.६४) इत्यादि वाक्य कहे हैं । एक ही 'अक्ष' शब्द 'बिभीतक', 'इन्द्रिय' 'रथ का अक्ष', 'द्यूत का अक्ष' तथा 'पाश' इन अनेक अर्थों का वाचक है। इसी
१. ह.-तादात्म्यादेः।
For Private and Personal Use Only