Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
इस समस्या के समाधान के लिये मीमांसा दर्शन में यह कहा गया कि-"तेष्वदर्शनाद् विरोधस्य समा प्रतिपत्तिः स्यात्"-(१.३.८.) अर्थात् यदि म्लेच्छ-प्रसिद्धि के साथ आर्य-प्रसिद्धि का कोई विरोध नहीं उपस्थित होता तब आर्य-प्रसिद्ध अर्थ के समान ही म्लेच्छ-प्रसिद्ध अर्थ को भी प्रामाणिक माना जायगा । जैसे-पिक, नेम, सत तथा तामरस ऐसे शब्द हैं जो पार्यों की भाषा में किसी विशेष अर्थ में प्रसिद्ध नहीं हैं। परन्तु अनार्यों की भाषा में क्रमशः कोकिल, अर्ध, बृहत्पत्र तथा कमल अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। इसलिये इन शब्दों के इन प्रसिद्ध अर्थों को ही प्रमाणिक माना जायगा । निरुक्त आदि के आधार पर नये अर्थों की कल्पना नहीं की जायेगी।
परन्तु यदि कोई शब्द आर्य तथा म्लेच्छ दोनों वर्गों में भिन्न भिन्न विरोधी अर्थों में प्रयुक्त होता है तो उस स्थिति में मीमांसा का निर्णय है कि "शास्त्रस्था तन्निमित्तत्वात्' (१.३.६), अर्थात् शास्त्रस्थ (आर्य) अथवा शिष्ट लोग जिस अर्थ में उस शब्द का व्यवहार करते हैं उसी अर्थ को प्रामाणिक माना जायगा । क्योंकि शिष्ट लोग ही शब्दार्थ-निर्णय में प्रमाण होते हैं। जैमिनि के इस निर्णय के आधार पर ही 'यव' आदि शब्दों के अर्थ के विषय में यह निर्णय दिया गया कि आर्य-प्रसिद्धि के बलवान् होने के कारण ‘यव' आदि शब्दों को 'जव' (जौ) आदि अर्थों का ही वाचक मानना चाहिये । मीमांसा दर्शन के इस प्रसङ्ग को तंत्रवार्तिक (१.३.४.६) में निम्न श्लोकों में प्रस्तुत किया गया है :
आर्यास् तावद् विशिष्येरन् अदृष्टार्थेषु कर्मसु । दृष्टार्थेषु तु तुल्यत्वम् आर्य-म्लेच्छ-प्रयोगिरणाम् ॥
अतः शास्त्राभियुक्तत्वाद् आर्यावर्त-निवासिनाम् । या मतिः सैव धर्माङ्ग-शब्दार्थत्व-प्रमा मता ॥ अभियुक्ततरा ये ये बहु-शास्त्रार्थ-वेदिनः । ते ते यत्र प्रयुज्येरन् स सोऽर्थस्तत्त्वतो भवेत् ॥
संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र के प्रमाण-भूत प्राचार्यों-पाणिनि, कात्यायन तथा पतंजलि आदि ने भी शिष्टों को न केवल शब्दार्थ-निर्णय में ही अपितु शब्द-स्वरूप-निर्णय में भी परम प्रमाण माना है। इस दृष्टि से पारिणनि का पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् (पा० ६.३.१०६) तथा उसकी महाभाष्य में मिलने वाली व्याख्या द्रष्टव्य है। इस विषय में भर्तृहरि ने भी स्पष्ट कहा है :
भाव-तत्त्व-दृशः शिष्टाः शब्दार्थेषु व्यवस्थिताः ।
(वाप० ३.१३.२१) अर्थात् शब्दार्थ के निर्णय में शब्दों के तत्त्व-द्रष्टा शिष्ट जन ही प्रमाण हैं ।
तव ...तु स्पष्टद-यदि नैयायिकों की यह बात मान ली जाय कि असाधु शब्दों से, भ्रम के कारण, अर्थ-बोध होता है तो मीमांसा दर्शन का यह सारा अधिकरण तथा वहां का निष्कर्ष निराधार एवं असंगत हो जायेगा, क्योंकि जब उन म्लेच्छों में
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