Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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शक्ति-निरूपण
६१ पर बल न होकर इस बात पर बल है कि परशु के द्वारा नीम के काटने में ही मौचित्य है।
स्वर-'स्वर' का अभिप्राय है स्वर वर्णों के उदात्त, अनुदात्त, स्वरित इत्यादि धर्म। इनके के आधार पर अर्थ का निर्धारण प्रायः वेदों या ब्राह्मण ग्रन्थों में ही प्राप्त होता है। यहां नागेश ने जो 'स्थूल-पृषती' का उदाहरण दिया है वह भी लौकिक उदाहरण नहीं है।
_ 'स्थूल पृषती' इस पद में 'कर्मधारय तत्पुरुष' ('स्थूला चासो पृषती च, अर्थात् मोटी और चितकबरी गाय) माना जाय या बहुव्रीहि-समास (स्थूलानि पृषन्ति यस्याम् अर्थात् बड़े २ धब्बों वाली गाय) यह सन्देह उपस्थित होता है । इस सन्देह का निवारण 'स्वर' के आधार पर ही हो सकता है। वह इस प्रकार कि यदि यह पद समासस्य (पा० ६.१.२२३) के अनुसार अन्तोदात्त है तब तो यहां 'कर्मधारय तत्पुरुष' समास मानना होगा पर यदि बहुव्रीही प्रकृत्या पूर्वपदम् (पा० ६.२.१) सूत्र के अनुसार स्थूल पृषती' पद में पूर्वपद-प्रकृति-स्वर है तो 'बहुव्रीहि' समास माना जायगा ।
'स्वर' के अर्थ-निर्णायक होने की बात पतंजलि ने भी महाभाष्य के पस्पशान्हिक में निम्न शब्दों में कही है :–याज्ञिकाः पठन्ति "स्थूलपृषतीम् आग्निवारुणीम् अनड्वाहीम् पालभेत" इति । तस्यां सन्देहः 'स्थूला चासौ पृषती च स्थूल-पृषती' इति 'स्थूलानि वा पुषन्ति यस्याः सेयं स्थूलपृषती" इति ? तां नावैयाकरणः स्वरतोऽध्यवस्यति-यदि पूर्व- पद-प्रकृतिस्वरत्वं ततो बहुब्रीहिः अथ समासान्तोदात्तत्वं ततस्तत्पुरुष इति । महा० भाग १, पृ० २१
प्रादि-कारिका में विद्यमान 'पादि' पद से 'षत्व' 'सत्व' 'णत्व', 'नत्व' जैसे हेतुओं का ग्रहण पुण्यराज आदि टीकाकारों ने किया है। जैसे 'सुसिक्तम्' तथा 'प्रतिस्तुतम्' में 'सत्व' को देखकर 'सु' तथा 'अति' का अर्थ क्रमशः 'पूजा' तथा 'अतिक्रमण' है यह निर्णय हो जाता है, क्योंकि इन्हीं अर्थों में सुः पूजायाम् (पा० १.४.६४) तथा अतिरतिक्रमणे च (पा० १.४.६५) इन सूत्रों द्वारा उपर्युक्त प्रयोगों में 'सु' तथा 'अति' की 'कर्मप्रवचनीय' 'संज्ञा' मानी गई है। 'कर्म-प्रवचनीय' संज्ञा हो जाने के बाद, आकडाराद् एका संज्ञा (पा० १.४.१) सूत्र के अनुसार 'एका संज्ञा' का नियम होने के कारण, इन दोनों की 'उपसर्ग' संज्ञा न हो सकी। और 'उपसर्ग' संज्ञा न होने के कारण इन दोनों प्रयोगों में धातु के 'स' को 'षत्व' नहीं हो सका।
इसके विपरीत 'सुषिक्तम्' तथा 'अतिष्टुतम्' प्रयोगों में, जहां षत्व हो जाता है, 'पूजा' तथा 'अतिक्रमण' से भिन्न 'निन्दा' आदि अर्थ माने जाते हैं, क्योंकि इन दोनों प्रयोगों में 'सु' तथा 'अति' की, इन दोनों अर्थों से भिन्न अर्थ होने के कारण ही 'कर्मप्रवचनीय' संज्ञा न होकर, 'उपसर्ग' संज्ञा हो गयी है, जिससे इनमें 'स्' को 'षत्व' हो गया।
इसी प्रकार 'प्रणायकः' में 'णत्व' के कारण प्रणयन क्रिया के कर्ता की प्रतीति होती है, क्योंकि यहां 'नी' धातु के प्रति 'प्र' की 'उपसर्ग' संज्ञा होने के कारण ('णोपदेश' रणी प्रापणे) धातु के 'नकार' को उपसर्गाद् असमासेऽपि णोपदेशस्य (पा. ८.४.१४) सूत्र से णत्व हो जाता है।
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