Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त - परम- लघु-मंजूषा
[' पङ्कज' शब्द में लक्षणा नहीं मानी जा सकती तथा इसके प्रयोगों में कहीं केवल 'रूढि' और कहीं केवल 'योग' अर्थ का बोध होता है]
पद्मेऽनुपपत्ति- प्रतिसन्धानं सम्बन्ध - प्रति सन्धानं च बिना न लक्षणावसरः । क्वचित् तात्पर्य - ग्राहक - वशात् केवलरूढ्यर्थस्य केवल-योगार्थंस्य च बोध: - "भूमौ पङ्कजम् उत्पन्नम् ", " कल्हार कैरवमुखेष्वपि पङ्कजेषु" इत्यादौ । स्पष्टं चेदम् "प्राहद्०ि" (५.१.१६ ) इति सूत्रे भाष्ये ।
( ' पङ्कज' शब्द की ) पद्म अर्थ में, ( वाच्यार्थ की ) अनुपपत्ति का विचार तथा ( वाच्यार्थ के साथ) सम्बन्ध का विचार किये बिना 'लक्षणा' मानने का कोई अवसर नहीं है । कुछ प्रयोगों में तात्पर्य का ज्ञापक होने के कारण केवल 'रूढ़ि' अर्थ तथा ( कुछ अन्य प्रयोगों में) केवल 'योग' अर्थ का ज्ञान होता है । (जैसे ) " भूमि में पङ्कज उत्पन्न हुआ" ( इस प्रयोग में केवल रूढ़ि अर्थ का ज्ञान तथा ) " कल्हार (छोटा कमल ) कैरव (कुमुद) प्रादि प्रमुख पङ्कजों के रहते हुए" ( इस प्रयोग में केवल 'योग' अर्थ का ज्ञान होता है) यह तथ्य "आर्हाद्०" सूत्र के भाष्य में पतंजलि द्वारा स्पष्ट किया गया है ।
पद्मे न लक्षणावसरः- यहां यह शङ्का हो सकती है कि 'पङ्कज' शब्द से कुमुद आदि अर्थों की भी प्रतीति कहीं-कहीं होती ही है, इसलिये 'पङ्कज' शब्द का वाच्यार्थ अभिधा वृत्ति के द्वारा साधारणतया 'पङ्क में उत्पन्न होने वाला' मानना चहिये श्रौर जहाँ 'पङ्कज' शब्द का कमल रूप विशेष अर्थ होता है, वहां 'पङ्कज' शब्द में अभिधा वृत्ति न मानकर लक्षरणा वृत्ति माननी चाहिये ।
इस शङ्का का उत्तर नागेश ने यह दिया है कि लक्षणा वृत्ति वहां मानी जाती है। जहां शब्द का उसके वाच्यार्थ में अन्वय न हो सके तथा वाच्य अर्थ और लक्ष्य अर्थ का परस्पर सम्बन्ध हो । जैसे- 'गङ्गायां घोष:' (गंगा में घोसियों का घर है) इस प्रयोग में 'गङ्गा' शब्द के वाच्यार्थ - ( नदी अथवा जलप्रवाह) के साथ 'घोषः' का सम्बन्ध नहीं बनता क्योंकि नदी में घर नहीं हो सकता । परन्तु 'गङ्गा' शब्द के लक्ष्यार्थ 'तट' का, 'गङ्गा' शब्द के वाच्यार्थ नदी के साथ सामीप्य आदि सम्बन्ध होता ही है ।
'पङ्कज' शब्द के प्रयोग में लक्षणा वृत्ति के लिये आवश्यक, ये दोनों ही हेतु विद्यामान नहीं हैं, इसलिये उसमें लक्षणा वृत्ति न मानकर 'शक्ति' या श्रभिधा वृत्ति ही माननी होगी ।
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कवचिद् इत्यादौ – इन पंक्तियों में यह बताया गया है कि 'योगरूढ़ि' के कुछ प्रयोगों में ऐसी स्थिति पायी जाती है, जिसमें केवल 'रूढ़ि' अर्थ का ही बोध होता
१.
ह० -- सूत्रभाष्ये ।
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