Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
__ शिक्षा आदि गुणों से रहित जिन (अशिक्षित) बोलने वालों में परम्परा से अपभ्रंश (असाधु शब्द ही) प्रचलित है उनके लिये साधु शब्द (साक्षात् अर्थ का) वाचक नहीं हैं (अपितु असाधु शब्द ही अशिक्षितों के लिये सीधे अर्थ के वाचक हैं)।
प्रत एव संगच्छते-इसलिये वैयाकरण साधु तथा असाधु दोनों प्रकार के शब्दों को अर्थ का वाचक मानते हैं। नागेश ने इस मत की पुष्टि में, प्रमाण के रूप में, पतंजलि तथा भर्तृहरि की स्पष्ट घोषणाओं को ऊपर प्रस्तुत किया है। व्याकरण शास्त्र के परम मर्मज्ञ ये दोनों ही विद्वान् इस बात को मानते हैं कि अर्थ की वाचकता शक्ति की दृष्टि से साधु तथा असाधू दोनों प्रकार के शब्द सर्वथा समान हैं—दोनों के द्वारा समान रूप से अर्थ का प्रकाशन होता है । यदि दोनों में कोई अन्तर है तो वह इतना ही कि साधु शब्दों के प्रयोग से प्रयोक्ता को एक अदृष्ट धर्म रूप अभ्युदय विशेष या पुण्य विशेष की प्राप्ति होती है जब कि असाधु शब्दों के प्रयोग से उस अभ्युदय विशेष की प्राप्ति नहीं होती।
इसीलिये वैयाकरण साधु तथा असाधु शब्दों की परिभाषा क्रमशः "पुण्योत्पादन की योग्यता से युक्त होना" तथा "पापोत्पादन की योग्यता से युक्त होना" करते हैं । वस्तुतः इस पुण्य तथा पाप की भी उनकी अपनी परिभाषायें हैं । वैयाकरण की दृष्टि में साधु एवं शिष्ट शब्दों के प्रयोग से चित्त का संस्कार होता है-और इस रूप में कुछ अदृष्ट धर्म अथवा अभ्युदय की उत्पत्ति की होती है । परन्तु असाधु शब्दों के प्रयोग से विपरीत प्रभाव उत्पन्न होता है इसी कारण उन्हें पाप-जनक कहा गया है । भर्तृहरि ने इस तथ्य को निम्न कारिका में बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है
शिष्टेभ्य प्रागमात् सिद्धाः साधवो धर्म-साधनम् ।
अर्थ-प्रत्यायनाभेदे विपरीतास्त्वसाधवः ॥ वाप० १.२७ अर्थात् शिष्टों के प्रयोग तथा परम्परा से प्रसिद्ध शब्द, जिनके उच्चारण से एक धर्म विशेष की उत्पत्ति होती है, साधु शब्द हैं । इसके विपरीत जो शिष्टों की भाषा में अथवा परम्परा से प्रसिद्ध नहीं है और न ही धर्म के उत्पादक हैं वे असाधु शब्द हैं । परन्तु जहां तक वाच्यार्थ के बोध कराने की बात है उस दृष्टि से साधु तथा असाधु दोनों ही अभिन्न हैं—समान हैं।
संभवतः ये दोनों पुण्य-जनकता तथा पाप-जनकता की बात अर्थवाद के रूप में इस लिये कही गई हैं कि इससे एक वर्ग-विशेष के द्वारा अपनाये गये, भाषा के, एक रूप की पूरी पूरी सुरक्षा होती रहे-उसका रूप विकृत न होने पाये।
[अपभ्रंश शब्दों में बाचकता शक्ति मानने पर ही मीमांसकों का 'प्रार्य-म्लेच्छाधिकरण' सुसंगत हो पाता है]
अत एव आर्य-म्लेच्छाधिकरणम् (मीमांसा १.३.४. ८-६) संगच्छते । तत्र हि यद्यपि आर्याः 'यव'-शब्द दीर्घ-शूके
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