Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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शक्ति-निरूपण
इस कारिका का अभिप्राय यह है कि यों तो शब्द का प्रयोग बाहर विद्यमान अर्थ की दृष्टि से ही होता है परन्तु 'अलातचक्र' जैसे शब्दों के प्रयोग से अत्यन्त अतथाभूत, अर्थात् सर्वथा अस्तित्व हीन-अविद्यमान, अलातचक्र आदि पदार्थ की प्रतीति होती है। 'पलातचक्र' इस शब्द को सुनने से श्रोता को लम्बे आकार वाले अलात के विषय में भी चक्राकारता का ज्ञान होता है। जिसका एक सिरा जल गया है तथा जिसमें आग की चिनगारी चमक रही है उस लकड़ी को 'अलात' कहा गया है। वच्चे प्रायः इस तरह की लकड़ी को लेकर घुमाते हैं। घुमाने से देखने वाले व्यक्ति को उस लम्बी पतली लकड़ी में चक्र के आकार की प्रतीति होती है। यह प्रतीति सर्वथा असत्य एवं बाह्यार्थ रहित होती है। इसी कारण 'अलातचक्र' शब्द के प्रयोग से इस चक्राकारता की प्रतीति का उदाहरण भर्तृहरि ने यहाँ दिया है। यहाँ 'अलातचक्र' के साथ जो 'आदि' पद है वह 'खपुष्प', 'शशविषाण' जैसे शब्दों का संग्राहक है, जिनके प्रयोग में उस प्रकार के बाह्यवस्तु का सर्वथा अभाव होता है।
['बुद्धिगत अर्थ ही शब्द के द्वारा अभिव्यक्त होता है' इस विषय में एक और हेतु] अत एव
एष वन्ध्यासुतो याति खपुष्पकृतशेखरः । कूर्म-क्षीर-चये स्नातः शशश्रृङ्गधनुर्धरः ॥ इत्यत्र वन्ध्यासुतादीनां बाह्यार्थशून्यत्वेऽपि बुद्धिपरिकल्पितं वन्ध्यासुतशब्दवाच्यार्थम् आदाय अर्थवत्त्वात् प्रातिपदिकत्वम् । अन्यथा अर्थवत्त्वाभावेन प्रातिपदिकत्वाभावात्
स्वाद्य त्पत्तिर्न स्यात् । इसीलिये (बुद्धिगत अर्थ के शक्य या वाच्य होने के कारण)
"आकाशपुष्प को शिरोभूषण बनाये हुए, कछुए के दूध में स्नान किये हुए तथा खरगोश की सींग से निर्मित धनुष को धारण किये हुए यह वन्ध्या का पुत्र जाता है।"
___ इस (श्लोक) में 'वन्ध्या पुत्र" आदि शब्दों के, बाह्यार्थ से रहित होने पर भी (वन्ध्यासुत आदि शब्दों के) बुद्धिपरिकल्पित वाच्यार्थ की दृष्टि से, अर्थवान् होने के कारण उनकी 'प्रातिपदिक' संज्ञा मानी जाती है। अन्यथा (बुद्धिगत अर्थ को न मानने पर) इन शब्दों की अर्थवत्ता के अभाव में, 'प्रातिपदिक' संज्ञा न होने पर, (इन शब्दों से) 'सु' आदि विभक्तियों की उत्पत्ति नहीं होगी। १. तुलना करो-सुभाषितरत्नभाण्डागार, अद्भुत रस निर्देश, श्लोक सं० ४ ;
एष वन्ध्यासुतो याति ख-पुष्प-कृत-शेखरः । मृग-तृष्णाम्भसि स्नात: शश-शृङग-धनुर्धरः ।।
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