Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण - सिद्धान्त-परम-मधु-मंजूषा
प्राचार्य वाचस्पति मिश्र ने कहा कि ईश्वर ने सृष्टि के प्रारम्भ में महर्षियों तथा देवताओं को साक्षात् शब्दों के अर्थ-विषयक सङ्केत का ज्ञान दिया । अतः 'सङ्केत' को 'शक्ति' नहीं माना जा सकता । 'सङ्केत' से पद-पदार्थ के 'तादात्म्य' - सम्बन्ध अथवा पारस्परिक 'अध्यास' का ज्ञान होता है तथा वह तादात्म्य सम्बन्ध वाच्य वाचक-भाव-रूपा 'शक्ति' का द्योतक है।
[' शब्द तथा अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध है' इस सिद्धान्त में प्रमारग ]
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तस्य च तादात्म्यस्य निरूपकत्वेन विवक्षितोऽर्थः शक्यः आश्रयत्वेन विवक्षितः शब्दः शक्त इत्युच्यते । शब्दार्थयोस्तादात्म्य देव ' श्लोकम् प्रवणोद् अथ अर्थं शृणोति', 'अर्थं वदति' इत्यादि व्यवहारः । श्रोम् इत्येकाक्षरं ब्रह्म ( ब्रह्मविद्योपनिषद् ३ ), रामेति द्वयक्षरं नाम मानभङ्गः पिनाकिनः वृद्धिरादैच् ( पा० १.१.१ ) इति शक्ति - ग्राहक श्रुति स्मृति-विषये सामानाधिकरण्येन प्रयोगाश्च ।
उस ' तादात्म्य सम्बन्ध' के निरूपक (या निर्णायक) के रूप में विवक्षित अर्थ को 'शक्य' तथा ( उस तादात्म्य सम्बन्ध के) प्राश्रय के रूप में विवक्षित शब्द को 'शक्त' कहा जाता है । शब्द तथा अर्थ में तादात्म्य (अभेद सम्बन्ध) के कारण ही 'श्लोक को सुना अब अर्थ को सुनता है' 'अर्थ को कहता है' इत्यादि व्यवहार (प्रयोग) होते हैं । "ओम्' यह एक अक्षर ब्रह्म है", "राम' यह दो अक्षर वाला नाम शंकर के घमण्ड को चूर करने वाला है" "आ ऐ औ वृद्धि है" इत्यादि शक्ति को बताने वाली श्रुतियों तथा स्मृतियों में, सामानाधिकरण य ( तादात्म्य) के द्वारा प्रयोग किये गये हैं ।
तस्य च शक्त इत्युच्यते - शब्द तथा अर्थ में जो 'तादात्म्य' सम्बन्ध माना जाता है उसका निरूपक अथवा निर्णायक है अर्थ, क्योंकि उसकी दृष्टि से ही शब्द में इस सम्बन्ध का निश्चय होता है । इसलिए इस सम्बन्ध के निरूपक के रूप में जिस अर्थ की विवक्षा की जाती है उस अर्थ को 'शक्य', अर्थात् शक्ति का विषय अथवा शक्ति के द्वारा बोध्य कहा जाता है। दूसरी श्रोर शब्द उस 'तादात्म्य' सम्बन्ध का श्राश्रय बनता है । इसलिये आश्रय के रूप में विवक्षित शब्द को शक्त', अर्थात् शक्तियुक्त अथवा बोधक, कहा जाता है ।
शब्दार्थयो ... प्रयोगश्चः -- श्लोक रूप शब्द का ही श्रवणेन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो सकता है अर्थ का नहीं । परन्तु 'श्लोकम् अशृणोद् अथ अर्थं शृणोति' जैसे प्रयोगों में श्लोकरूप शब्द तथा उसके अर्थ दोनों में प्रभेद या तादात्म्य मान कर ही 'अर्थ' को कहने या सुनने की बात सुसंगत हो सकती है । इसी प्रकार 'ओम्' शब्द और उसके अर्थभूत परब्रह्म का अभेद, 'राम' शब्द तथा उसके अर्थभूत मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र में
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