Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
[ 'सङ्केत' के विषय में योग-सूत्र के व्यास-भाष्य का प्रमाण ] :--
तद् उक्तं पातंजल-भाष्ये'-- संकेतस् तु पद-पदार्थयोर् इतरेतराध्यासरूपः स्मृत्यात्मको योऽयं शब्दः सोऽर्थो योऽर्थः स शब्द: इति । 'स्मृत्यात्मकः' इत्यनेन ज्ञातस्यैव संकेतस्य शक्ति-बोधकत्वं दर्शितम् ।
इसलिये पातंजल-(योग-सूत्र के व्यासकृत) भाष्य में कहा गया है --- 'संकेत तो पद तथा पदार्थ का पारस्परिक अध्यारोप-रूप है। जो यह शब्द है वही अर्थ है और जो अर्थ है वही शब्द है इस प्रकार की स्मृति हो संकेत की प्रात्मा (विषय) है" । ‘स्मृत्यात्मकः' इम (कथन) से यह बताया गया कि ज्ञात संकेत ही 'शक्ति' का वोधक है।
संकेतस्तु... "स शब्दः इति-ऊपर जो यह कहा गया कि शब्द और अर्थ का पारस्परिक 'अध्यास' ही संकेत है उसकी पुष्टि में योगदर्शन के व्यास भाष्य का कथन प्रमाण के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है । 'पातंजल भाष्य' शब्द से संभवत: यहाँ व्यासकृत भाष्य ही अभिप्रेत है । 'इतरेतराध्यासरूपः' शब्द का विग्रह है 'इतरेतराध्यासो रूपं स्वरूपं प्रात्मा यस्य सः' । इसका अर्थ यह है कि पद और पदार्थ या शब्द
और शब्दार्थ का पारस्परिक 'अभ्यास' ही संकेत है। 'अध्यास' तथा 'अध्यारोप' या केवल 'आरोप' लगभग समानार्थक शब्द हैं। नैयायिक जिसे प्रारोप या अध्यारोप कहते हैं उसे ही वेदान्ती अध्यास नाम देते हैं। आरोप की परिभाषा की गयी है ---'अन्य में अन्य के धर्म का ज्ञान' । द्र०-प्रतवति तत्प्रकारकं ज्ञानम् मारोपः (न्यायकोश) यह आरोप दो तरह का माना गया । एक माहार्य, अर्थात् कृत्रिम, तथा दूसरा अनाहार्य अर्थात् अकृत्रिम या वास्तविक । 'पाहार्य प्रारोप' वह है जहाँ बाघ ज्ञान का निश्चय होने पर भी अपनी इच्छा से हम उसमें अन्य धर्म के ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं - बाधकालीनम् इच्छा-जन्यं ज्ञानम् माहार्यम् (न्यायकोश)। जैसे मुख तथा चन्द्रमा दोनों के भिन्न भिन्न होने पर भी चन्द्रमा के धर्म आह्लादकत्व आदि का अपनी इच्छा से प्रेयसी के मुख में आरोप कर लेना। इस 'आहार्य आरोप' को ही साहित्य में 'रूपक' अलंकार का बीज माना गया । द्र०-रूपकं रूपितारोपो विषये निरपह नवे (साहित्यदर्पण १०.४०) यहाँ पद तथा पदार्थ के पारस्परिक अध्यास या 'अरोप' की जो कल्पना की गयी उसे वैयाकरणों की दृष्टि में 'आहार्य' (कृत्रिम) न मान कर, अनाहार्य (सत्य) ही मानना होगा । क्योंकि भर्तृहरि प्रादि ने
१. ह. में 'पातंजल-भाष्ये' अनुपलब्ध । २. प्रकाशित संस्करणों में 'पद' अनुपलब्ध ।
तुलना करो योगसूत्र-व्यासभाष्य (३।१५); योऽयं शब्द: सोऽयमर्थः । योऽर्थः स शब्दः । इत्येवम् इतरेतराध्यास-रूपः संकेतो भवति ।
For Private and Personal Use Only