Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
निष्फल हैं क्योंकि वास्तविक वाचकता तो इन दोनों में से किसी में भी नहीं है-वह तो पदस्फोट-वादियों की दृष्टि से पदों तथा वाक्यस्फोट-वादियों की दृष्टि से केवल वाक्यों में ही हो सकती है।
नागेश की यहां की पंक्तियों से यह अर्थ निकलता है कि यदि वाचकता माननी ही है तो 'स्थानी' की ही मानी जा सकती है 'आदेश' की नहीं । क्यों कि 'ल' आदि 'स्थानियों' की वाचकता को तो पाणिनि अादि ऋषियों ने साक्षात् अपने सूत्रों द्वारा स्वीकार किया है। जैसे-पाणिनि ने "लः कर्मणि" सूत्र में यह माना कि 'कर्ता; 'कर्म' तथा 'भाव' ये 'स्थानी' (लकार) के अर्थ हैं, 'तिप्' अशीद आदेशों के नहीं। और 'प्रादेश' का तो अपना कोई अर्थ होता ही नहीं क्योंकि 'स्थानी' के स्थान पर वही 'प्रादेश' या सकता है जो उस 'स्थानी' के अर्थ को कहने में समर्थ हो। इसलिए यदि अर्थ का काल्पनिक विभाग किया ही जाता है तो 'स्थानी' को अर्थवान् मानना चाहिये 'आदेश' को नहीं ।
इस प्रकार यहां से यह प्रतीत होता है कि नागेश यहां नैयायिकों के मत का, कि 'स्थानी वाचक होता है आदेश नहीं, कथंचित् समर्थन कर रहैं हैं, भले ही वह काल्पनिक वाचकता की दृष्टि से ही हो । परन्तु पागे, इस ग्रन्थ के 'दशलकारादेशार्थ:' प्रकरण के प्रारम्भ में, संभवतः भटटोजि दीक्षित से प्रभावित होकर, नागेश भटट ने लकार के स्थान में आदेशभूत 'तिङ्' को अर्थ का वाचक माना है तथा उनके विषय में विचार किया है । साथ ही यह भी कहा है कि 'प्रादेश' के अर्थो का स्थानी' में आरोप करके पाणिनि ने 'वर्तमाने लट्' (पा० ३.२.१२३) तथा 'लः कर्मणि' (पा० ३.४.६९)
आदि सूत्रों की रचना की, अर्थात् पाणिनि 'स्थानी' को अर्थ का वाचक नहीं मानते'आदेश' को अर्थ का वाचक मानते हैं ।
"स्थान्यर्थाभिधान-समर्थस्यैवादेशता" इति भाष्य-न्यायात्-पतंजलि के महाभाष्य में इस प्रकार के किसी न्याय का इन्हीं शब्दों में कहीं कथन नहीं मिलता। इतना अवश्य है कि “स्थानेऽन्तरमः” (पा० १.१.४८) सूत्र के महाभाष्य में 'स्थानी' के स्थान पर आने वाले 'प्रादेश' की अन्तरतमता को 'अन्तरम' वचनं चाशिष्यम् । योगश्चाप्ययम् अशिष्यः । कुतः ? स्वभाव-सिद्धत्वाद् एव' (महा०. भा० १ पृ० ४०२) इन शब्दों द्वारा स्वभाव-सिद्ध बताया है। संभवत: 'भाष्य-न्याय' शब्द से नागेश का तात्पर्य इन पंक्तियों से ही हो।
उपर्युक्त न्याय का अभिप्राय यह है कि प्रादेश वही हो सकता है जा“स्थानी' के अर्थ को कहने में सर्वथा समर्थ हो । वस्तुतः पाणिनि का 'स्थानेऽन्तरमः" सूत्र इस न्याय का मूल माना जा सकता है, क्योंकि उस सूत्र का अर्थ है -“स्थानी, के स्थान पर अन्तरतम अर्थात् सदृशतम 'आदेश' होता है"। यह सदृशतमता चार दृष्टियों से देखी जा सकती है-स्थान, अर्थ, गुण तथा प्रमाण (द्र० काशिका १.१.५०) । इन चारों में 'अर्थ' (अभिप्राय) भी विद्यमान है। इसलिये जो 'आदेश' 'स्थानी' के अर्थ को कहने में, 'स्थानी' के समान ही, समर्थ होगा, उसे ही 'आदेश' माना जा सकता है। इस कारण 'आदेश' 'स्थानी' के अर्थो को ही कहते हैं-उनका अपना कोई अर्थ नहीं होता। __मुख्यं वाचकत्वम्...तत एवार्थ-बोधात्-नैयायिकों के मतानुसार चाहे 'स्थानी' को वाचक माना जाय अथवा, भट्टोजि दीक्षित आदि के विचारानुसार, 'आदेश' को वाचक
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