Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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शक्ति-निरूपण
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अवच्छिन्न (विशिष्ट) कहा गया है। इन धर्मों को यहां पदार्थ का विशेषण अथवा न्याय की पारिभाषिक शब्दावली में, 'प्रकार' कहा गया है ।
तद्धर्मावच्छिन्न...."हेतुः--इस अंश में 'शाब्दबुद्धि' रूप कार्य के कारण का स्वरूप निर्धारित किया गया है । इस कारण' के स्वरूप में उच्चरित शब्द का ज्ञान तथा उस शब्द की अभीष्ट पदार्थ अथवा द्रव्य विषयक बृत्ति का ज्ञान इन दोनों का उल्लेख किया गया है । किसी भी शाब्दबोध में ये दोनों अनिवार्य तत्त्व हैं । श्रोता ने उच्चरित शब्द को यदि स्पष्टतः नहीं सुना है-उसे नहीं जाना है तो उस शब्द की 'वृत्ति' का बोध होने पर भी, उस अश्रु त अथवा अज्ञात शब्द से उसे अर्थ का बोध नहीं होगा। इसी प्रकार उच्चरित शब्द को सुन लेने के बाद भी यदि उस शब्द की 'वृत्ति', अर्थात् अभीष्ट अभिप्राय का बोध कराने वाले अभिधा, लक्षण तथा व्यंजना आदि व्यापारों, का बोध श्रोता को नहीं है तो भी उस श्रत शब्द से अर्थ का बोध नहीं हो सकता।
यहां भी स्पष्टता की दृष्टि से, उदाहरण के रूप में, 'तत्' का अर्थ घट, पट आदि पदार्थ किया जा सकता है । अब 'तद्-धर्म' का अर्थ है उन उन पदार्थों में रहने वाले घटत्व, पटत्व आदि धर्म । इस प्रकार 'तद्-धर्माविच्छिन्न' का अर्थ है-उन उन-घटत्व आदि धर्मों से अवच्छिन (विशिष्ट) घट पट आदि पदार्थ । 'निरूपित' का अर्थ 'विषयक' या 'सम्बद्ध' किया जा सकता है । इस रूप में 'तद्-धर्मावच्छिन-निरूपित-वृत्ति' का अर्थ हुआ उन उन घटत्व, पटत्व आदि धर्मों से विशिष्ट जो घट, पट आदि पदार्थ उनसे सम्बद्ध अथवा उन उन घट, पट आदि पदार्थ-विषयक जो 'वृत्ति' । जैसे-'घट' शब्द की वृत्ति घट पदार्थ से सम्बद्ध है अथवा घट-पदार्थ-विषयक है और घट पदार्थ घटत्व धर्म से अवच्छिन्न है। इसलिये इसको 'घटत्वाविच्छिन्न-निरूपित-वृत्ति' कहा जायगा । इसी प्रकार 'पट' शब्द की वृत्ति पट पदार्थ से सम्बद्ध है अथवा पट-पदार्थ-विषयक है और पट पदार्थ पटत्व धर्म से अवच्छिन्न (विशिष्ट) है । इस दृष्टि से यहां 'वृत्ति' को 'तद्-धर्मविच्छिन्न-निरूपित' इस विशेषण से विशेषित किया गया ।
सरल शब्दों में घट-पदार्थ-विषयक शाब्दबोध के प्रति 'घट' शब्द तथा उसकी, घटपदार्थ से सम्बद्ध, 'वृत्ति' का ज्ञान कारण है। इसी तरह पट आदि सभी पदार्थों के शाब्दबोध में कार्यकारणभाव की स्थिति समझनी चाहिये । यहां यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि जिस धर्म से विशिष्ट वृत्ति वाले शब्द का ज्ञान होगा उसी धर्म से विशिष्ट पदार्थ का ही शाब्दबोध होगा, अन्य धर्म से विशिष्ट पदार्थ का शाब्दबोध नहीं होगा (द्र०-यद्-धर्म-प्रकारक-वृत्ति-ज्ञानं तद्-धर्म-प्रकारक एव बोधः (पलम०, ज्योत्स्ना टीका, पृ० २७)।
परन्तु शब्द का ज्ञान तथा उसमें रहने वाली वृत्ति का ज्ञान इन दोनों को यदि स्वतन्त्र रूप से पृथक-पृथक् शाब्दबोध का कारण माना जाय, जैसा कि नैयायिक विद्वान मानते हैं, तो अनावश्यक गौरव (विस्तार) होगा। अत: व्याकरण के विद्वान् वृत्तिविशिष्ट शब्द के ज्ञान को अर्थ-प्रतीति अथवा शाब्दबोध में कारण मानते हैं । इस रूप में केवल एक ही कारण की कल्पना करनी पड़ती है-दो कारणों की नहीं -यह लाघव है।
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