Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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शक्ति-निरूपण
२
के स्थान पर 'सङ्केतः' पाठ माना जाय, तभी इस स्थल की संगति लग सकती है, क्योंकि तादात्म्य तो एक प्रकार का 'सङ्केत' है और इस रूप में वह वाच्य वाचक भाव रूप सम्बन्ध का द्योतक है । तुलना करो - तस्मात् पद-पदार्थयोः तद्-ग्राहकं चेतरेतराध्याससूलं तात्म्यम् । तच्च संकेत : ( लम०, पृ० २६) ।
शक्तेरपि दृष्टत्वात् -- लघुमंजूषा के इस प्रसंग में शक्तेर् श्रपि कार्य जनकत्वे इत्यादि से पहले यत्तु पदपदार्थयोर् बोध्य-बोधक - भाव- नियामिका शक्तिर् एव सम्बन्ध इति तन्न ( पृ० ३३) अर्थात् पद तथा पदार्थ के वाच्य वाचक-भाव का नियमन करने वाली शक्ति ही सम्बन्ध है - यह मानना ठीक नहीं है, इतना पाठ और मिलता है जो परम- लघु-मंजूषा में छूटा हुआ है। या यह भी हो सकता है, कि इतने अभिप्राय को यहाँ अध्याहृत मान लिया गया हो, क्योंकि इस आशंका के उत्तर के रूप में ही यहाँ की पंक्तियों की संगति लग पाती है ।
इन पंक्तियों में यह कहा गया है कि 'शक्ति' को ही सम्बन्ध नहीं माना जा सकता क्योंकि 'शक्ति' को भी कार्य के उत्पादन के लिये, किसी न किसी दूसरे सम्बन्ध की आवश्यकता होती ही है । इसी दृष्टि से दीपक में विद्यमान प्रकाशिका शक्ति का दृष्टान्त दिया गया । दीपक में विद्यमान यह शक्ति तभी वस्तु को प्रकाशित कर पाती है, जब वस्तु तथा प्रकाश दोनों का 'संयोग' सम्बन्ध होता है । इसलिये 'शक्ति' को ही सम्बन्ध नहीं माना जा सकता। इसी कारण शब्द तथा अर्थ में विद्यमान अनादि शक्ति ( योग्यता ) तथा सम्बन्ध दोनों की घोषणा भर्तृहरि ने वाक्यपदीय की निम्नकारिका में की है :
१.
इन्द्रियाणां स्व-विषयेष्वनादिर् योग्यता मथा ।
अनाविर् श्रर्थः शब्दानां सम्बन्धो योग्यता तथा । वाप० ३.३.२६ ।
भर्तृहरि ने इस कारिका में शब्द तथा अर्थ में विद्यमान सम्बन्ध तथा योग्यता ( 'शक्ति' ) दोनों को श्रनादि एवं श्रनवच्छिन्नरूप से विद्यमान माना है । 'शक्ति' के साथ साथ शब्द तथा अर्थ में पारस्परिक सम्बन्ध के भी होने के कारण ही, नैयायिकों द्वारा अभिमत ईश्वरेच्छारूप 'शक्ति' का वैयाकरणों ने खण्डन कर दिया है क्योंकि उस ईश्वरेच्छारूप 'शक्ति' के साथ साथ, शब्द तथा अर्थ का परस्पर, कोई सम्बन्ध नहीं दिखायी देता ।
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'शक्ति' के साथ 'सम्बन्ध' की अनिवार्य सत्ता के विषय में भर्तृहरि का कथनः-तद् उक्तं हरिरणा
"उपकारः स यत्रास्ति धर्मस् तत्रानुगम्यते । शक्तीनाम् श्रप्यसौ शक्तिर् गुणानाम् श्रप्यसौ गुणः "" ।
तुलना करो :
"उपकारः - उपकार्योपकारकयोर् बोध - शक्त्योर् उपकार-स्वभावः सम्बन्ध: - यत्रास्ति तत्र 'धर्मः ' शक्तिरूप:
उपकारात् स यत्रास्ति धर्मस् तत्रानुगम्यते ।
शक्तीनाम् अपि सा शक्तिर् गुणानाम् अप्यसौ गुणः ॥ मा० ३।३१५
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