Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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शक्ति-निरूपण
शास्त्रमात्रविषयम् - इस अंश का अभिप्राय यह हैं कि केवल व्याकरण-शास्त्र की दृष्टि से ही, अर्थात् शब्दों के साधुः स्वरूप को जानने तथा उसके लिये शब्द-सिद्धि की प्रक्रिया के निर्वाहार्थ ही, पदों में 'प्रकृति' तथा 'प्रत्यय' रूप अंशों तथा उनके अर्थों की कल्पना की गयी । द्र०-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रकृतिप्रत्ययानाम् इह शास्त्रेऽर्थवत्तापरिकल्पनात् (महा०, प्रदीप टीका ५.३.६८, पृ० ४७१) ।
वाक्यों में पदों की सत्ता तथा पदों में 'प्रकृति' 'प्रत्यय' की सत्ता सर्वथा काल्पनिक एवं कृत्रिम है । अतः, इन विभागों के कल्पित होने के कारण, इनके आधार पर किया गया अर्थ-विभाग, अर्थात् पदों के पृथक् २ अर्थ तथा 'प्रकृतियों' और 'प्रत्ययों' के अलग २ अर्थ, सभी कल्पित हैं। इस तथ्य का भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में बड़े विस्तार से प्रतिपादन किया है। इस दृष्टि से वहां की निम्न कारिकायें द्रष्टव्य है :
परे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्ववयवा न च ।
वाक्यात् पदानाम् अत्यन्तं प्रविवेको न कश्चन ॥ १.७३ पदों में वर्ण (सत्य) नहीं हैं तथा वर्गों में उनके अवयव (सत्य) नहीं हैं। इसी प्रकार वाक्य से पदों का आत्यन्तिक विभाग भी (संभव) नहीं है ।
यथा पदे विभज्यन्ते प्रकृतिप्रत्ययादयः ।
अपोद्धारस्तथा वाक्ये पदानाम् उपवर्ण्यते ।। २.१० जिस प्रकार एक पद में 'प्रकृति', 'प्रत्यय' आदि का (असत्य) विभाग किया जाता है उसी प्रकार (अखण्ड) वाक्य में (कल्पित) पदों के विभाग का अन्वाख्यान होता है ।
भागेर अनर्थकर युक्ता वृषभोदकयावकाः ।
अन्वयव्यतिरेको तु व्यवहारनिबन्धनम् ॥ २.१२ 'वृषभ', 'उदक', 'यावक' आदि शब्द अनर्थक भागों (ऋषभ, उद, याव आदि) से युक्त हैं। 'अन्वय' तथा 'व्यतिरेक (उस प्रकृति तथा प्रत्यय के होने पर पद की व्युत्पत्ति और न होने पर व्युत्पत्ति का अभाव) तो (शब्द की व्युत्पत्ति रूप) व्यवहार के निमित्त (या उपायमात्र) हैं ।
जिस प्रकार वाक्यों एवं पदों का विभाग असत्य है उसी प्रकार वाक्यार्थ-विभाग तथा पदार्थ-विभाग भी कल्पित हैं। द्रष्टव्य :
शब्दस्य न विभागोऽस्ति कुतोऽर्थस्य भविष्यति ।
विभागः प्रक्रिया-भेदम् अविद्वान् प्रतिपद्यते ।। २.१३ (अखण्ड) शब्द (वाक्य) का विभाग (सत्य) नहीं है, फिर उसके अर्थ में क्यों विभाग होगा (वाक्य में कल्पित पद आदि के) विभागों से (उत्पन्न) अर्थ की भिन्नता को अविद्वान् ही सत्य मानते हैं (विद्वान् सत्य नहीं मानते)।
ब्राह्मणार्थों यथा नास्ति कश्चिद् ब्राह्मण-कम्बले । देवदत्तादयो वाक्ये तथैव स्युर् अनर्थकाः ॥ २.१४
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