Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
कल्पिताभ्याम् अन्वयव्यतिरेकाभ्याम्- 'अन्वय' तथा 'व्यतिरेक' की परिभाषा की गयी है-यत् सत्त्वे यत् सत्त्वम् अन्वयः । यत्-अभावे यद्-अभावो व्यतिरेकः । अर्थात् जिसके होने पर जो हो वह, 'अन्वय' है तथा जिसके न होने पर जो न हो वह व्यतिरेक' है । पतंजलि ने सिद्धं त्वन्वयव्यतिरेकाभ्याम् (महा० १.२.४५) इस वार्तिक के व्याख्यान में 'अन्वय', 'व्यतिरेक' का अर्थ, उदाहरण सहित, निम्न पंक्तियों में स्पष्ट किया है :-इह 'वृक्षः' इत्युक्ते कश्चिन्, छब्दः श्रूयते अकारान्तः सकारश्च प्रत्ययः । अर्थोऽपि कश्चिद् गम्यते-मूलस्कन्धफलपलाशवान्. एकत्वं च । 'वृक्षौ' इत्युक्ते कश्चिच छब्दो होयते, कश्चिद् उपजायते, कश्चिद् अन्वयी । सकारो हीयते, प्रोकार उपजायते, वृक्षशब्दो प्रकारान्तोऽन्वयो । अर्थोऽपि कश्चित् हीयते, कश्चिद् उपजायते, कश्चिद् अन्वयी, एकत्वं हीयते, द्वित्वम् उपजायते, मूलस्कन्धफलपलाशवान् अन्वयी। तेन मन्यामहे यः शब्दो हीयते तस्य असो अर्थो यो हीयते । यः शब्द उपजायते तस्य असौ अर्थो योऽर्थ उपजायते । यः शब्दोऽन्वयो तस्य असौ अर्थो यो अर्थेन अन्वेति ।
अभिप्राय यह है कि 'वृक्षः' कहने पर अकारान्त वृक्ष शब्द सुनाई देता है तथा सु' प्रत्यय की स्थिति का ज्ञान होता है । इसी प्रकार इस शब्द के सुनने से मूल, स्कन्ध, फल तथा पत्ते वाले एक द्रव्य रूप अर्थ का बोध होता है। परन्तु 'वृक्षौ' कहने पर कुछ शब्दांश छूट जाता है, कुछ बढ़ जाता है तथा कुछ साथ साथ लगा रहता है । 'सु' प्रत्यय नष्ट हो जाता है, 'औ' प्रत्यय आ जाता है । तथा अकारान्त 'वृक्ष' शब्द अन्वित रहता है-लगा रहता है । इस कारण एकत्व रूप अर्थ नष्ट हो जाता है, द्वित्व रूप अर्थ बढ़ जाता है तथा 'मूल, शाखा, फल तथा पत्तों वाला द्रव्य' यह अर्थ अन्वित रहता है। इसलिये यह मानना चाहिये कि जो शब्दांश नष्ट होता है उसका वह अर्थ है जो नष्ट होता है, जो शब्दांश बढ़ जाता है उसका वह अर्थ है जो बढ़ जाता है तथा जो शब्दांश अन्वित रहता है उसका वह अर्थ है जो अन्वित रहता है ।
इस प्रकार पतंजलि ने भी 'अन्वय' 'व्यतिरेक' को अर्थ के निश्चय करने में प्रमाण माना हैं। भर्तृहरि भी इन दोनों को अर्थ का निश्चायक अथवा विवेचक मानते हैं । द्र०-अन्वयव्यतिरेको तु व्यवहारे निबन्धनम् । (वाप० २.१२)
'अन्वय' तथा 'व्यतिरेक' को स्पष्ट करने के लिये एक और उदाहरण दिया जाता है । 'गाम् प्रानय' इस वाक्य में 'गौ' शब्द के उच्चरित होने पर ही सास्ना आदि से युक्त पदार्थ (गो) का बोध होता है। यह 'अन्वय' हुआ । जब 'गौ' शब्द का उच्चारण नहीं किया जाता तब वह अर्थ नहीं ज्ञात होता । यह हुआ 'व्यतिरेक' । इसी प्रकार इस शब्द के साथ 'अम्' विभक्ति का प्रयोग होने पर ही 'कर्मत्व' रूप अर्थ का ज्ञान होता है---यह 'अन्वय' है, तथा 'अम् का उच्चारण न होने पर उस अर्थ का ज्ञान नहीं होता-यह 'व्यतिरेक' है। वैयाकरणों की दृष्टि में 'प्रकृति', 'प्रत्यय' का विभाग कल्पित है इसलिये उनके आधार पर होने वाले 'अन्वय' तथा 'व्यतिरेक' भी कल्पित हैं।
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