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दशवकालिक को सूक्तिया
पिच्चानवे
६७ जो अपने आचार्य एव उपाध्यायो की शुभ्रूपा-सेवा तथा उनकी आज्ञाओ
का पालन करता है, उसकी शिक्षाएँ (विद्याएँ) वैसे ही वढती हैं जैसे
कि जल से सीचे जाने पर वृक्ष । ६८. अविनीत विपत्ति (द ख) का भागी होता है और विनीत सपत्ति
(मुख) का। ६९. जो मविभागी नहीं है, अर्थात् प्राप्त सामग्री को साथियो मे बाटता नहीं
है, उसकी मुक्ति नहीं होती। ७०. जो गुरुजनो की भावनाओ का आदर करता है, वहीं जिप्य पूज्य
होता है। ७१. जो लाभ न होने पर सिन्न नहीं होता है, और लाभ होने पर अपनी
वडाई नहीं हाकता है, वही पूज्य है ।
७२. वाणी मे बोले हुए दुप्ट मीर कठोर वचन जन्म जन्मान्तर के वैर और
भय के कारण बन जाते हैं।
७३. सद्गुण से साधु कहलाता है, दुगुण से असाधु । अतएव दुगुणो का
त्याग करके सद्गुणो को ग्रहण करो।
७४. जो अपने को अपने से जानकर रागद्वीप के प्रसगो मे सम रहता है, वही
साधक पूज्य है।
७५. जो वान्त-त्याग की हुई वस्तु को पुन सेवन नहीं करता, वही सच्चा
भिक्षु है। ७६. जिसकी दृष्टि सम्यग् है, वह कभी कर्तव्य-विमूढ नही होता ।
७७. विग्रह वढाने वाली बात नही करनी चाहिए ।