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अथर्ववेद की सूक्तियां
एक सौ सत्ताईस ८६. हे पुरुष | तेरी उन्नति की ओर गति हो, अवनति की अोर नही ।
६०. हे पुरुष ! तेरा मन कुमार्ग मे न जाये और यदि कभी चला भी जाये तो
वहां लीन न हो, अधिक काल तक स्थिर न रहे । ६१. अन्य प्राणियो के प्रति प्रमाद न कर, अर्थात् उनके प्रति जो तेरा कर्तव्य
है, उस मोर लापरवाह मत बन । ६२. तू अपने मृत पितरो के मार्ग का अनुसरण मत कर अर्थात् पुरानो मृत
परम्पराको को छोडकर नवीन उपयोगी परम्पराओ का निर्माण कर। ६३. गुजरे हुओ का गोक न कर, क्योकि ये शोक मनुष्य को बहुत दूर पतन
की ओर ले जाते हैं। ६४. अन्धकार (अज्ञान) से प्रकाग (ज्ञान) की ओर प्रारोहण कर ।
६५. हे पुरुष । तू इस अज्ञान के अन्धकार मे न जा। वहा तेरे लिए भय ही
भय है, और यहा ज्ञान के प्रकाश मे अभय है ।
६६. हे मनुष्य, बोध (ज्ञान) और प्रतीवोध (विज्ञान) तेरी रक्षा करे । अस्वप्न
(स्फूर्ति, जागरण) और अनवद्राण-(कर्तव्य से न भागना, कर्तव्य
परायणता, अप्रमत्तता) तेरी रक्षा करे । ६. तेरे पास से अन्धकार चला गया है, बहुत दूर चला गया है । अब तेरा
प्रकाश सब और फैल रहा है। ६८. तू रजोगुण (भोगासक्ति) तथा तमोगुण (अज्ञान एव जड़ता) के निकट मत
जा । तू इस प्रकार भोगासक्त होकर विनाश को मत प्राप्त हो ।
प्रतिवुध्यमानः । ६. प्रतीवोध प्रतिवस्तु प्रतिक्षणं वा बुध्यमानः । १०. निद्रारहितः । ११ व्यवात् व्यौच्छत् तमोविवासनमभूत् । १२ हिंसा च मा प्राप्नुहि ।