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उपनिषद् साहित्य की सूक्तिया
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१७ आत्म-बोध से हो मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त होता है अनन्त आध्यात्मिक वीर्य (शक्ति) मिलता है । विद्या से से ही अमृतत्व प्राप्त होता है ।
१८. आत्मज्ञान की प्रतिष्ठा अर्थात् बुनियाद तीन बातो पर होती है - तप,
दम (इन्द्रियनिग्रह ) तथा कर्म - सत्कर्म ।
एक सौ सत्तानवे
। आत्मा से हो
वास्तविक ज्ञान
१६. मैं बहुतो मे प्रथम हूँ और बहुतो मे मध्यम हूँ । अर्थात् बिल्कुल निकृष्ट (निकम्मा) नही हूँ ।
२०. जो तुझ से पहले हो चुके हैं उन्हे यह मत्यं (मरणधर्मा मनुष्य) एक पकता है, नष्ट होता है और फिर जाता है ।
देख, जो तेरे पीछे होगे उन्हे देख | अन्न की तरह पैदा होता है,
दिन
जन्म के
रूप मे उत्पन्न हो
नये
२१. ये संसार के सुखभोग मनुष्य के श्वोभाव हैं, अर्थात् आज हैं कल नही । ये इन्द्रियो के तेज को क्षीण कर देते हैं ।
२२. मनुष्य की कभी धन से तृप्ति नही हो सकती ।
२३
श्रेय मार्ग अन्य है और प्रेय मागं अन्य है । ये दोनो भिन्न-भिन्न उद्द ेश्यो से पुरुष को बांधते हैं । इनमे से श्रेय को ग्रहण करने वाला साधु (श्रेष्ठ) होता है और जो प्रेय का वरण करता है वह लक्ष्य से भटक जाता है ।
२४. श्र ेय और प्रेय की भावनाएँ जब मनुष्य के समक्ष आती हैं तो धीर पुरुष इन दोनो की परीक्षा करता है, छानबीन करता है। धीर पुरुष ( ज्ञानी ) प्रेय की अपेक्षा श्र ेय का ही वरण करता है और मन्दबुद्धि व्यक्ति योग-क्षेम (सासारिक सुख भोग) के लिए प्रेय का वरण करता है ।