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सूक्ति कण
तीन सौ उनोस, १२८. पो पुरुष विवेकान्ध है, विवेकहपो नेत्रो से हीन है, वह जन्मान्ध है ।
१२६. कीचड़ मे मेढक बनना अच्छा है, विष्ठा फा कोड़ा बनना अच्छा है
और अंधेरी गुफा में सांप होना भी अच्छा है, पर, मनुष्य का अविचारी
होना अच्छा नही है। १३०. विद्वान् पुरुपो का समागम होने पर आपत्ति भी सपत्ति की तरह मालूम
होती है। १३१ चित्त ही नर है, चित्त से अतिरिक्त नर अथांत् मनुष्य कुछ नही है ।
१३२. पशु रस्सी से खीचे जाते हैं और मूढ मनुष्य मन से खीचे जाते हैं ।
१३३. (महर्षि वशिष्ठ ने रामचन्द्रजी से कहा-) हे राघव । बाहर मे कर्ता
और भीतर में अकर्ता रहकर आप लोक मे विचरण कीजिए । १३४. मूर्खता से वढकर अन्य कोई ससार मे दुःख देने वाला नहीं है।
१३५. अहकार ही इस ससार का बीज है।
१३६. जो नही है, वह सदा और सर्वथा नही ही है। अर्थात् असत् कभी सत्
नही हो सकता। १३७. (महर्षि वशिष्ठ ने रामचन्द्रजी से कहा है-) मैं अज्ञानी को अच्छा
समझता हूँ, परन्तु ज्ञानबन्धुता' को अच्छा नही समझता । १३८ जो बोध पुनर्जन्म से मुक्त होने के लिए है, वस्तुतः वही ज्ञान कहलाने
के योग्य है । इस के अतिरिक्त जो शब्दज्ञान का चातुर्य है, वह केवल अन्न वस्त्र प्रदान करनेवाली एक शिल्पजीविका (कारीगर एव मजदूर,
का घंधा) है, और कुछ नही। १. ज्ञान योग के बहाने सत्कर्मों को त्यागकर विषयभोग - में लिप्त रहने वाला व्यक्ति ज्ञानवन्ध कहलाता है ।