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सूक्ति कम
तीन सौ इकतीस १६०. मंसार-वृक्ष को बोजमूता यह अविद्या (अज्ञान) दो प्रकार की है
बनात्मा (मात्मा से भिन्न शरीर आदि जड पदार्थ) मे आत्मबुद्धि और जो म-स्व है, शरीर आदि पर पदार्थ अपना नही है, उसे 'स्व' अर्थात
अपना मानना । २६१. सुद चेतन की स्थूल, सूक्ष्म और कारण-ये तीन उपाधियां हैं। इन.
उपाधियो से युक्त होने से वह जीव कहलाता है और इनसे रहित होने
से परमेश्वर कहा जाता है। १६२. ( राम ने कैकेयी से कहा ) जो पुथ पिता की माता के विना ही
उनका अभीप्ट कार्य करता है, वह उत्तम है। जो पिता के कहने पर. करता है, वह मध्यम होता है और जो कहने पर भी नही करता है, वह पुत्र तो विष्ठा के समान है ।
१६३. 'मैं देह हूँ'-इस बुद्धि का नाम ही अविद्या है। और 'मैं देह नही,
वेतन आस्मा है-इमी बुद्धि को विद्या कहते हैं।
१६४. अविद्या जन्म-मरणरूप संसार का कारण है, और विद्या उसको निवृत्त
वर्षात् दूर करने वाली है। (वनवास के लिए कैकेयी को दोषी ठहराने वाले निषादराज गुह को दिया गया लक्ष्मण जी का उपदेश) सुख और दुख का देने वाली कोई
और मही है । कोई अन्य सुख दुःख देता है-यह समझना बुद्धि है। 'मैं ही करता हूँ"यह मनुष्य का वृथा अभिमान है । क्योकि संसार के
सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों की डोरी में बंधे हुए हैं। १६५. हमें न तो भोगो की प्राप्ति की इच्छा है और न उन्हे त्यागने की।
भोग आएं या न पाएं, हम भोगो के अधीन नहीं हैं।
१९७. सुख के भीतर दुःख और दुःख के भीतर सुख सर्वदा वर्तमान रहता है,
ये दोनो ही जल और कीचड़ के समान परस्पर मिले हुए रहते हैं।