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मुक्ति कर
तोन सौ इकतालीस २४५ जो जाति, नीति, कुल बार गोत्र में परे है, नाम, रूप, गुण और दोष
से रहित है, तथा देश, मान और विषय ने भी पृषक है. तुम वही ब्रह्म हो-ऐसी अपनी अन्तः गारण में भावना करो।
२४६. लोकवासना. पाम्प्रयागना और देशयामना-इन तीनो के कारण
ही जीव को यथार्थ मात्मशान नहीं हो पाता।
२४७. वासना-क्षय का नाम हो मोटा है और गही जोवन्मुक्ति कहलाती है।
२४८. वाणी को रोकना, धन का संग्रह न करना, मापा और मामनायो का
त्याग करना और नित्य एकान्त में रहना-ये सब योग का पहला
द्वार है। ४६ यह मात्मा म्ययं ही ब्रह्मा है, स्वय हो यिपणु है, स्वयं ही इन्द्र है, और
शिव भी स्वय ही है। २५०. बीती हुई बात को याद न करना, भविष्य को चिन्ता न करना और
वर्तमान में प्राप्त होने वाले सुख दु.खादि मे उदासीनता-यह जीव. - मुक्त का लक्षण है। २५१ जिस का जन्म ही नहीं हुआ हो, उसका मारा भी कैसे हो सकता है?
२५२ प्रकृति के दसियो, संकडो और हजारो विकार क्यो न हो, उनसे मुझ
प्रसग चेतन मात्मा का क्या सम्बन्ध ? क्या कभी मेघ अाकाश को छूमकता है, गीला कर सकता है ? कभी नही ।
२५३. देह का मोक्ष (त्याग) मोक्ष नही है, और न दण्ड-कमण्डलु का मोक्ष
ही मोक्ष है । वस्तुतः हृदय को अविद्यारूप ग्रन्थि (गाठ) का मोक्ष
(नाश) हो मोक्ष है। २५४. निन्द्र और निस्पृह होकर मानन्द से विचरण करो।
२५५ विद्या अविद्या को वैसे ही नष्ट कर देती है, जैसा कि तेज (प्रकाश)
अन्धकार समूह को नष्ट कर देता है।