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तीन सो तेतालीस
सूक्ति कम
२५६. शरीर सुख-दुःखो के भोग का स्थान है ।
२५७ जिस प्रकार दीपक अपने प्रकाश के लिए दूसरे दोपो को अपेक्षा नही करता है, उसी प्रकार आत्मा को अपने शान के लिए अन्य किसी की प्रपेक्षा नही होती है ।
२५८. ति का समस्त विषयो मे विगुस हो जाना हो परम उपरति (वंराग्य) है, मौर सभी जाने वाले दुःो वो समभाव मे सहन करना तितिक्षा है ।
२५६. वुद्धिमान् वर के साथ हो कन्या का विवाह करना चाहिए। २६०, पत्थर बनो, परशु (कुल्हाड़ा) बनो ! अर्थात् पर्वत को चट्टान की तरह दृढ़ और परशु की तरह अन्याय- पत्याचार को सप्ट-सण्ड करने वाले बनो ।
२६१. (वाचार्य ब्रह्मचारी गिप्य को सम्बोधित करता है) मेरे हृदय में तेरा हृदय हो, मेरे वित्त (चिन्तन) में तेरा चित्त हो ।
२६२. महापुरुषो का समागम प्राप्त होना दुर्लभ है, प्राप्त होने पर आत्मसात् होना कठिन है, यदि एक बार आत्मसात् हो जाता है, तो वह फिर व्यर्थ नही जाता, निष्फल नही होता ।
२६३. चित में काम, क्रोष आदि की तरंगे कितनी ही छोटो हो, दुःसंग से बढ़ते-बढ़ते एक दिन ये समुद्र बन जाते हैं ।
२६४. माया को कौन पार करता है ? कौन पार करता है ?
जो सभी प्रकार की आसक्तियों को त्यागता है, जो अपने महान् गुरुजनों को सेवा करता है, जो निर्मम (ममतारहित ) होता है । २६५. गूंगे के रसास्वादन की तरह प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है ।
२६६. सच्चे भगवद्भक्त तीर्थों को तीर्थत्व, कर्मों को सुकमंत्व एवं शास्त्रों को सच्छास्त्रत्व प्रदान करते हैं ।
२६०. सच्चे भगवद्भक्तो मे जाति, विद्या, रूप, कुल, धन एव क्रिया ( आचार व्यवहार) आदि के कारण कोई भेद (द्व ेत, ऊंचे नीचे का भाव) नही होता है ।
२६८. भगवद्भक्त को वाद (किसी से कलह, कहासुनी, अथवा धार्मिक एवं साम्प्रदायिक वाद-विवाद ) नही करना चाहिए ।