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सूक्ति कण
तीन सौ उनतीस
१८०. स्वर्ग में देवगण भी निरन्तर यही गान करते रहते हैं कि जो
स्वर्ग, एवं अपवर्ग (मोक्ष) के मार्गस्वरूप भारतवर्ष मे देवभव से पुनः मानवभव में जन्म लेते हैं, वे धन्य हैं । (अथवा-जो भारत मे मानवजन्म लेते हैं, वे पुरुष हम देवताओ की अपेक्षा भी अधिक घन्य हैं,
बड़भागो है।) १८१. एक ही वस्तु सुख और दु.ख ती ई और कोप का कारण हो
जाती है, तो उसमें वस्तु फा अपना मूल वस्तुत्व (नियत स्वभाव)
ही कहाँ है ? १८२. सुख-दुःष वस्तुतः मन के हो विकार हैं ।
१८३. समत्व-भावना हो विष्णु भगवान को आराधना है, पूजा है।
१८४. हे राजन् । जो पुरुष दूसरो की स्त्री, धन और हिंसा मे रुचि नही
रखता है, उससे भगवान् विष्णु सदा ही सन्तुष्ट (प्रसन्न) रहते हैं।
१८५. जिसके घर से अतिथि निराश होकर लोट जाता है, उसे वह अपने
पाप देकर उसके शुभ कर्मों को ले जाता है।
१८६. संस्कारहीन अन्न खानेवाला मूत्रपान करता है, तथा जो बालक-वृद्ध
बादि से पहले खाता है, वह विष्ठाहारी है । १८७. विना दान किये खाने वाला विपमोजो है।
१८८. (महर्षि व्यास ने कहा है-) स्त्रियां ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे
• अधिक धन्य मोर कौन है ? १८६. तप, ब्रह्मचर्य आदि की साधना के द्वारा जो फल सत्ययुग मे दस वर्ष में
मिलता है, वह प्रेता मे एक वर्ष, द्वापर मे एक मास और कलियुग में केवल एक दिन रात मे ही प्राप्त हो जाता है।