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सूक्ति कण
तीन सौ सत्ताईस
१६६. सभी प्राणियो को अपना आप ( अपना जीवन एवं शरीर ) सब सें अधिक प्रिय होता है ।
१७०. एक रस के जीत लेने पर सब कुछ जीता जा सकता है । अर्थात् यदि एक रसनेन्द्रिय को वश मे कर लिया, तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश मे हो गयी ।
१७१. कोई भी व्यक्ति स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से अपने मन को पूर्ण बुद्धि के साथ जहाँ भी कही केन्द्रित कर लेता है, तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है ।
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१७२. इन्द्रियो का विषयों के लिए विक्षिप्त होना - चंचल होना बन्धन है ओर उनको संयम में रखना ही मोक्ष है ।
१७३. किसी से द्रोह न करना, सव को अभय देना दान है । कामनाओ का त्याग करना ही तप है । अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही
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शूरता है । सर्वत्र समत्व का दर्शन हो सत्य है ।
१७४. ज्ञान का उपदेश देना ही दक्षिणा है ।
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१७७. तमोगुण की वृद्धि ही नरक है ।
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१७५: विषय भोगों की कामना हो दुःख है । जो बन्धन और मोक्ष का तत्त्व
जानता है, वही पण्डित है ।
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१७६. सत्वगुण की वृद्धि ही स्वर्ग है ।
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१७८. जिसके मन में असन्तोष है, अभाव का ही द्वन्द्व है, वही दरिद्र है । जो जितेन्द्रिय नही है, वही कृपण है ।
१७६. जिन-जिन दोषों से मनुष्य का चित्त उपरत होता है, उन सब के बन्धन से वह मुप्ता हो जाता है ।