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सूक्ति कण
वीन सौ पच्चीस १५६. पृष्पी ने कहा है कि असत्य से बढ़ कर कोई अधर्म नही है । मैं
सब कुछ सहने में समर्थ हूँ, परन्तु भूठे मनुप्य का भार मुझ से नही
सहा जाता। १६०. (भगवान् विष्णु ने दुर्वासा ऋषि से कहा-) साधुजन मेरे हस्य है घोर
उन प्रेमो साधुजनो का हृदय में स्वय है। १६१. (राजा रन्तिदेव ने पीरित एवं बुमुक्षित प्रजा के कल्याण की कामना
करते हुए कहा था-) में भगवान् से अष्ट सिद्धियो से युक्त स्वर्ग की श्रेष्ठ गति नही पाहता। और तो क्या, में मोक्ष की कामना भी नहीं करता । मैं तो केवल यही चाहता हूँ, कि में विश्व के समस्त प्राणियो के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा का सारा दु.ख में हो
सहन करलू, ताकि अन्य किसी भी प्राणी को दुख न हो। १६२. श्रद्धा, दया, तितिक्षा एव ऋतु-सत्कर्म भगवान् हरि के शरीर है साक्षात् ।
१६३. हिंसक दुष्ट व्यक्ति को उसके स्वयं के पाप हो नष्ट कर डालते हैं, साधु
पुरुष अपनी समता से ही सब खतरो से बच जाता है।
१६४. जो संत पुरुप सब को अपनी मारमा के समान मानता है, उसके पास
छिपाने जैसी कोई भी बात नहीं होती। . .. ... .. १६५. (श्री कृष्ण ने इन्द्र की पूजा करने के लिए तत्पर नन्द जी को कहा-)
मनुष्य के लिए उसका अपना कम ही गुरु है, और ईश्वर है। १६६. पिताजी ! जिस के द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती
है, वही उसका इष्ट देवता होता है। १६७. प्रकृति के रजोगुण से प्रेरित होकर मेघगण सव कही जल बरसाते हैं।
उसी से अन्न आदि उत्पन्न होते हैं और उन्ही अन्न आदि से सब जीवो
की जीविका चलती है । इस मे भला इन्द्र को क्या लेना-देना है ? १६८. सहनशील तितिक्षु पुरुष क्या नही सह सकते ? दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा
क्या नही कर सकते ? और समदर्शी के लिए पराया कौन है ?