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सूक्ति कण
तीन सौ तेईस
१५०. जो अन्य प्राणियो के साप वैरभाव रखता है, उसके मन को कभी
शान्ति नहीं मिल सकती। १५१. भगवद् भक्तो के क्षणभर के संग के सामने हम स्वर्ग और मोक्ष को भी
कुछ नही समझते, फिर मानवीय भोगो को तो बात ही क्या?
१५२. (भगवान् विष्णु ने दक्ष प्रजापति से कहा-) ब्रह्मन् ! तप मेरा हृदय है,
विद्या शरीर है और कर्म आकृति है। १५३. रोगी के चाहने पर भी सदध उसे कुपथ्य नही देता।
१५४. (नारद जी ने युधिष्ठिर से कहा-) मनुष्यो का अधिकार केवल उतने
ही धन पर है, जितने से उदरपूर्ति की जासके, भूख मिट सके। जो इस से अधिक सम्पत्ति को अपनी मानता है, अपने अधिकार में रखता
है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिए। १५५. हरिन, केट, गधा, बन्दर, चूहा, सरीसृप (रेंग कर चलने वाले प्राणी
सपं आदि), पक्षी और मक्खी आदि को अपने पुत्र के समान हो समझना चाहिए । सही दृष्टि से देखा जाए तो उन में और पुत्रों में
अन्तर ही कितना है ? १५६. गृहस्थ को धर्म, अर्थ, काम-रूप त्रिवर्ग के लिए बहुत अधिक कष्ट नही
करना चाहिए, अपितु देश, काल और प्रारब्ध के अनुसार, जितना सुष
सके, प्राप्त हो सके, उसी मे सन्तोष करना चाहिए । १५७ अपने-अपने स्वभाव एव योग्यता के अनुकूल किया जाने वाला धर्म,
भला किसे शान्ति नहीं देता?
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जैसे पैरो में जूता पहन कर चलने वाले को कंकड़ पौर कांटो से कोई कष्ट नहीं होता, सुख ही होता है, वैसे ही जिसके मन में सन्तोष है, उस को सर्वदा और सब कही सुख-ही-सुख है, दुःख कही है ही नहीं।