Book Title: Sukti Triveni Part 01 02 03
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 769
________________ तीन सौ पैंतीस २१०. मार्या, पुत्र, पौत्र आदि ही गृह कहलाते हैं । २११. काल का अतिक्रमण अर्थात् विलम्ब कार्य के ताजा रस को पी जाता हैनष्ट कर देता है। २१२. वाणो के द्वारा हो अतीत, अनागत, और वर्तमान के दूरस्थ रहस्यो का ज्ञान होता है। २१३. जो अपराधी नहीं है, वह कभी डरता नही । २१४, जो स्वयं देव नहीं है, वह कभी देवो को तृप्त (प्रसन्न) नहीं कर सकता। २१५. अपने विकारो से युद्ध करने वाले साधको का आत्मा ही रय है, और आरमा हो अश्व है, आत्मा ही आयुष-शस्त्रास्त्र है। ११६. मन से ही मुक्ति का मार्ग प्राप्त होता है। २१७. मन ज्ञान का सागर है, वाणी ज्ञान की सरिता है। २१८. मनन सन शास्त्रो के परिज्ञान को कूप के समान उत्स्यन्दित (ऊपर की मोर प्रवाहित करता है। २१६. जो अन्तिम की रक्षा करता है, वह अवश्य ही मध्य को भी रक्षा करता २२०. पाप का हेतु होने के कारण अश्लील भाषण से प्रवक्ता का, मुख दुर्गन्धित हो जाता है। १२१. जुए से प्राप्त धन सत्कर्म के विनियोग में उपयुक्त नही होता।

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