Book Title: Sukti Triveni Part 01 02 03
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 771
________________ सूक्ति कण तीन सौ संतीस २२२. मित्र (सूर्य) सवका मित्र है। २२३. जिस प्रकार स्वर्ग प्राप्ति के नाना प्रकार होते हैं, उस प्रकार मुक्ति के नही, अर्थात् मुक्ति का एक ही प्रकार है-जनामक्त प्रवृत्ति । २२४. निस्पृह साधक का ही योग में अधिकार है । २२५. जो केवल (परलोक में) स्वर्ग प्राप्ति के लिए कम करते हैं, वे अपनी मात्मा की हत्या करते हैं। २२६ आत्मा को सस्कारित करनेवाला कर्म ही ब्रह्मभाव का जनक है। २२७ जो उस (ब्रह्म) को जानने वाला है, वह स्वय वही है । २२८. मन, वाणी और कर्म को अमायिकता एवं अकुटिलता का नाम ही सत्य है। २२६. शास्त्र अपने सेवको की तरह न तो किमी को जवर्दस्ती किसी काम से रोकता है और न ही किसी को किसी काम के लिए प्रेरित करता है । २३०. बद्ध जीव के बन्धन का नाश करने के लिए ही उपदेश किया जाता है। २३१ वस्तुतः आत्म-ज्ञान ही पाण्डित्य है। २३२. प्रत्येक देहधारी प्राणी के भीतर देव-दानवो का सग्राम अनादिकाल से चला आ रहा है। २३३. तृष्णा दु.ख का बीज है । २३४. मनुष्य क्रोध में मूढ (पागल) होफर गुरु (बडे) को भी गाली बकने लग जाता है।

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