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सूक्ति कण
तीन सौ इक्कीस
१३९. जो व्यक्ति प्रारब्ध के प्रवाह में आए हुए कार्यों के लिए काम-संकल्प
को छोडकर सदा तत्पर रहता है, एवं आकाश के समान जिस का
हृदय आवरणशून्य प्रकाशमान रहता है, वही पण्डित कहा जाता है । १४०. प्रश्नकर्ता दो तरह के होते हैं-एक तो तत्त्वज्ञ (ज्ञानी) और दूसरे
अज्ञानी । अज्ञानी प्रश्नकर्ता को अज्ञानी बनकर उत्तर देना होता है और शानी को ज्ञानी बनकर ।
१४१. कोई भी वाणी निष्कलंक नही होती।
१४२. वक्ता जिस तरह का होता है, वह उसी तरह का कपन करता है।
१४३. जिस का पति नीरस (स्नेहशून्य) हो, उस स्त्री को विनष्ट ही समझना
चाहिए । और जो बुद्धि संस्कारयुक्त न हो, वह भी नष्ट ही समझनी
चाहिए। १४४. वही स्त्री, स्त्री है जो पति से अनुगत हो, वही श्री, श्री है जो सज्जनों
से अनुगत हो, वही बुद्धि, बुद्धि है जो मधुर एवं उदार हो, तथा वही
साधुता साधुता है जो समदृष्टि से युक्त हो । १४५. किसी को नीम अच्छा लगता है तो किसी को मषु । (अपनी अपनी
रुचि है, अपना अपना अभ्यास है।) १४६. निरन्तर के (औषधिनिमित्तक) अभ्यास से विष भी अमृत बन जाता
जो जिस वस्तु को चाहता है, उसके लिए यत्न करता है। मोर यदि थक कर वीच में ही अपना विचार न बदल दे तो उसे अवश्य प्राप्त
भी कर लेता है। १४८, वह विद्वत्ता केवल मूर्खता ही है, जिसमे विषयमोगों के प्रति वितृष्णता
(विरक्ति) नही है। १४६. जो ज्ञानी को उद्विग्न करने वाली हो, ऐसी कोई हेय वस्तु संसार में
कही भी नहीं है।