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तीन सौ सत्रह
सूक्ति कण
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११६. मुक्तात्मा केवल अपने चैतन्यमात्र स्वरूप में स्थित रहता है, क्योंकि उसका वास्तविक स्वरूप वैसा ही है ऐसा मचायं मोडुलोमि कहते हैं ।
१२०. जैसे आकाश मे दोनो ही परो से पक्षी उडते हैं, एक से नही, वैसे ही साधक को ज्ञान और कर्म दोनो से परम पद की प्राप्ति होती है ।
१२१. समय पर थोड़ा भी कार्य किया जाए तो वह बहुत अधिक उपकारक होता है । असमय मे बडा से बडा उपकार भी निष्फल चला जाता है ।
१२२. आजकल के मनुष्य गड्ढे के वृक्षो के समान हैं । ( जिस प्रकार गहरे अन्धगतं के वृक्ष की छाया, पत्र, पुष्प, फल आदि किसी के भी उपभोग मे न आने से व्यर्थ हैं, उसी प्रकार पामर मनुष्यो के विद्या, धन सम्पत्ति आदि भी किसी का उपकार न करने के कारण व्यर्थ हैं 1 )
१२३. पूर्वजन्म के भौर इस जन्म के कर्म (पुरुषार्थ) दो मेढ़ो की भाँति परस्पर लड़ते हैं, उनमे जो बलवान् होता है, वही दूसरे को क्षण भर में पछाड़ देता है ।
१२४. पूर्वजन्म का पौरुष हो यहाँ इस जन्म मे व्यक्ति का देव कहलाता है ।
१२५. शुभ और अशुभ मागं से वह रहो वासनारूपी नदी को अपने पुरुषार्थ के द्वारा अशुभ मार्ग से हटाकर शुभ मार्ग में लगाना चाहिए ।
१२६ अग्नि की ज्वालाएँ जैसे तृण (घास-फूस ) को जला डालती हैं, वैसे हो मूठ पुरुष को पद पद पर दुःख चिन्ताएं प्राप्त होती हैं, और उसे जला डालती है ।
१२७. मोक्षद्वार के चार द्वारपाल बतलाए हैं--शम, विचार, सन्तोष और चौथा सज्जनसंगम ।