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भगवद्गीता को सूक्तियां
दो सौ सततर
६२ जो दान कर्तव्य समझ कर एकमात्र 'दान के लिए दान' के भाव से ही
दिया जाता है, तथा योग्य देश, काल तथा पात्र का विचार कर अनुपकारी (जिसने अपना कभी कोई उपकार न किया हो तथा भविष्य मे जिन से कभी उपकार की अपेक्षा न हो) को दिया जाता है, वह दान 'सात्विक दान' कहा जाता है ।
६३ जो दान क्लेशपूर्वक, बदले की माशा से, फल को दृष्टि मे रख कर
दिया जाता है, वह दान 'राजस' दान कहलाता है।
६४. जो दान विना सत्कार-सम्मान के अवज्ञापूर्वक, तथा विना देश काल का
विचार किए कुपात्रों को दिया जाता है, वह दान 'तामस' दान कहलाता
६५. हे अर्जुन । विना श्रद्धा के किया हुअा हवन, दिया हुमा दान, एव तपा
हुमा तप, और जो कुछ भी किया हुमा शुभ कर्म है, वह सब 'असत्' कहलाता है । वह न तो इस लोक मे लाभदायक होता है, न मरने के
नाद परलोक मे। ६६.. अपने-अपने उचित कम मे लगे रहने से ही मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती
६७. सभी-कर्मों में कुछ-न-कुछ दोष उसी प्रकार लगा रहता है, जैसे अग्नि के
साथ घु। . ६८. जो साधक ब्रह्मभूत-ब्रह्मस्वरूप हो जाता है, वह सदा प्रसन्न रहता है।
वह न कभी किसी तरह का सोच करता है, न आकाक्षा । ६६. हे अर्जुन | ईश्वर सभी प्राणियो के हृदय में विराजता है ।
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