________________
भगवद्गीता को सूक्तिया
दो सौ पिचहत्तर
५३ जो न किसी दूसरे प्राणी को उद्विग्न करता है और न स्वय ही किसी अन्य से उद्विग्न होता है, जो हर्ष-शोक से तथा भय और उद्व ेग से मुक्त है, वह भक्त मुझ को प्रिय है ।
५४. जिनका अहकार तथा मोह नष्ट हो गया है, जिन्होने आसक्ति को जीत लिया है, जो अध्यात्मभाव मे नित्य निरत हैं, जिन्होने काम भोगो को पूर्ण रूप से त्याग दिया है, जो सुख दुःख आदि के सभी द्वन्द्वो से मुक्त है, वे मभ्रान्त ज्ञानीजन अवश्य ही अव्यय - अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं ।
५५. वहां न सूर्य का प्रकाश है, न चन्द्रमा का और न अग्नि का, जहाँ जाने के बाद फिर लोटना नही होता है, वही मेरा परम धाम है ।
५६. काम, क्रोध तथा लोभ-ये तीनो नरक के द्वार हैं तथा श्रात्मा का विनाश करने वाले हैं, इसलिए इन तीनो को छोड देना चाहिए ।
५७. हे अजुन । जैसा व्यक्ति होता है, वैसी हो उसकी श्रद्धा होती है । पुरुष वस्तुत. श्रद्धामय है, जो जैसी श्रद्धा करता है, वह वही (वैसा ही ) हो जाता है ।
५८. उद्व ेग ( अशान्ति) न करने वाला, प्रिय, हितकारी यथार्थ सत्य भाषण और स्वाध्याय का अभ्यास - ये सब वाणी के तप कहे जाते हैं ।
५६. मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मौन, आत्म-निग्रह तथा शुद्ध भावना--- ये सब 'मानस' तप कहे जाते हैं ।
६०. जो तप सत्कार, मान, और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए पाखण्ड भाव से किया जाता है, वह अनिश्चित तथा अस्थिर तप होता है, उसे 'राजस' तप कहते हैं ।
६१. जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से तथा मन, वचन और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, वह 'तामस ' तप कहा जाता है ।