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सूक्ति कण
तीन सौ नो
७३. श्रोत्र आदि इन्द्रियो के द्वारा शब्द आदि विषयो का ज्ञान युगपद् (एक
समय मे एक साथ) नही होता, इस पर से मन का इन्द्रियो से पृथक
अस्तित्व सिद्ध होता है । ७४. दुःख से सदा के लिए छुटकारा पा जाने को अपवर्ग (मोक्ष) कहते
७५. विभिन्न व्यक्तियो मे समान बुद्धि पैदा करने वाली जाति है।
७६. वीतराग के जन्म का प्रदर्शन है, अर्थात् रागद्वप से रहित वीतराग
आत्माओ का पुनर्जन्म नहीं होता।
७७. रागद्वेष की अपेक्षा मोह (मिथ्या ज्ञान, विचिकित्सा) अधिक अनर्थ का
मूल है, क्योकि अमूढ (मोहरहित) आत्मा को रागद्वेष नहीं होता। ७८. दोष के निमिस रूपादि विषयो के तत्त्वज्ञान (बन्धहेतुरूप वास्तविक
स्वरूप के दर्शन) से अहंकार निवृत्त हो जाता है। ७६. संकल्पकृत ही रूपादि विषय दोषो के निमित्त (कारण) होते हैं ।
८०. जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस् (आध्यात्मिक विकास,
मुक्ति) की प्राप्ति हो, वह धर्म है। ५१. कारण के गुणो के अनुसार ही कार्य के गुण देखे जाते हैं ।
८२ हिंसा के कारण अच्छा-से-अच्छा साधक भी दुष्ट (मलिन) हो जाता है ।
८३. सुखोपभोग से उत्तरोत्तर सुख एव सुख के साधनो के प्रति राग उत्पन्न
होता है। ८४. यह पुरुष (आत्मा) मूलत. असग है, निलिप्त है ।