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सूक्ति कण
तीन सो तेरह ६८. अभ्यास (निरन्तर को साधना) और वैराग्य (विषयो के प्रति विरक्ति)
के द्वारा चित्तवृत्तियो का निरोध होता है । ६६. अविद्या आदि क्लेश, शुभाशुभरूप कर्म, कर्मों का विपाक (फल) और
मापाय (विपाकानुरूप वासना)~इन सब के स्पर्श से रहित पुरुषविशेष
ही ईश्वर है। १०० सुखी, दुःखी, पुण्यवान् तथा अपुण्यवान् (पापात्मा) प्राणियो के प्रति
यथाक्रम मंत्री, करुणा, मुदिता एव उपेक्षा की भावना करने पर चित्त
प्रसन्न (निमल) होता है। १०१. सप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान (निष्काम भाव से ईश्वर की
भक्ति, तल्लीनता)--यह तीन प्रकार का क्रियायोग है-अर्थात्
कर्मप्रधान योगसाधना है । १०२. अनित्य, अशुचि, दु ख तथा अनात्म (जड) विषयो मे नित्य, शुचि, सुख
तथा आत्मस्वरूपता को ख्याति (प्रतीति) ही अविद्या (अज्ञान) है। १०३. सुखानुशयी क्लेशवृत्ति राग है-अर्थात् सुख तथा सुख के साधनो मे
प्रासक्ति, कृष्णा या लोभ का होना राग है । १०४. दुःखानुशयो क्लेशवृत्ति द्वेष है-अर्थात् दुःख तथा दुःख के साधनो के
प्रति क्षोम एव क्रोध का होना 'ष है । १०५. वस्तुत. अनागत (मविष्य में होने वाला) दुःख ही हेय होता है। '
१०६. अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच
यम हैं। १०७. जाति, देश, काल और समय से अनवच्छिन्न अर्थात् जाति आदि की
सीमा से रहित साधभौम (सदा और सर्वत्र) होने पर ये ही महिंसा प्रादि महाप्रप्त हो जाते हैं।
अहिंसा है। चतुर्दशी आदि पर्व तिथि में हिंसा न करना, कालावच्छिन्न अहिंसा है । युद्ध मे ही हिंसा करना, अन्यत्र नही; यह क्षत्रियो की समयावच्छिन्न अर्थात् स्वोचित कर्तव्य को दृष्टि से सीमित अहिंसा है ।