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दो सौ निम्मान
सूक्ति कण २०. मैं जो भी कुछ कहूँ, मधुर कहूँ ।
२१] हम सब के लिए सभी कुछ शान्तिकारी हो ।
२२. मैं पूर्ण रूप से अहीन हूँ।
२३. श्येन बन कर ही अर्थात् श्येन के समान अपने लक्ष्य के प्रति शीघ्र झपट्टा
मार उड़ान करने वाला साधक ही स्वर्ग पर मारोहण कर सकता
२४. मैं सब प्राणिजगत् का मिष हूँ।
२५. अहंकार को पकड़ से मुक्त मनुष्य ही आत्म स्वरूप को प्राप्त करता
२६ वासना का नाश ही मोक्ष है।
२७. प्रत्येक फल का उदय क्रियापूर्वक ही होता है, विना क्रिया के कही भी
कोई भी फल नहीं होता।
विवेकी-ज्ञानी के लिए शास्त्र भार (बोझ) है, रागद्वष से युक्त पुरुष के लिए ज्ञान (शास्त्रों का पाण्डित्य) भार है, अशान्त व्यक्ति के लिए मन भार है और आत्मज्ञान से हीन मनुष्य के लिए यह देह भी भारस्वरूप है।
२६.
यह तृष्णारूपी चंचल बंदरिया दुरुह स्थान में भी अपना पांव टिकाने को उद्यत है, तृप्त हो चुकने पर भी विभिन्न फलो की कामना करती है, और अधिक देर तक किसी एक स्थान पर ठहरती भी नही है।
३०. 'मैं देह हूँ यह संकल्प ही सब से बड़ा ससार है।