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सूक्ति कण
तीन सौ पाच ५१. मनुष्य जैसे लोगो के साथ रहता है, जैसे मनुष्यो की उपासना करता है,
और जैसा होना चाहता है, वैसा ही होजाता है ।
५२ ज्ञानी बहुतो के साथ रह कर भी मौन रहता है, ज्ञानी अकेला दुर्वल
होने पर भी बलवान है।
५३. जरूरतमन्द को स्वय पास जाकर देना उत्तम दान है. वुला कर देना
मध्यम है, मांगने पर देना अधम है, और सेवा करा कर देना तो
सर्वथा निष्फल एवं व्यर्थ है। ५४. पाप कर्म हो जाने पर उसे छुपाना नही चाहिए, अपितु ज्ञानी के समक्ष
आलोचना कर के प्रायश्चित्त लेना चाहिए, क्योकि छुपा हुआ पाप अधि
काधिक बढता ही जाता है, घटता नही है । ५५. ब्राह्मण (विद्वान्) युग के अनुरूप होते है, अर्थात् युगानुकूल आचरण
करते हैं। ५६. अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौयं), शौच (मानसिक पवित्रता), इन्द्रिय
निग्रह, दान, दया, दम (सयम) और क्षमा-ये जाति एवं वर्ण के
भेद भाव के विना सभी के लिए धर्म के साधन हैं । ५७. न केवल विद्या से और न केवल तप से पवित्रता प्राप्त होती है। जिसमे
विद्या और तप दोनो ही हो, वही पात्र कहलाता है।
५८. यम यम नही है, आत्मा ही वस्तुत- यम है। जिसने अपनी आत्मा को
संयमित कर लिया है, उस का यम (यमराज) क्या करेगा?
५६. सम्मान से तप का क्षय हो जाता है ।
६०. जो परस्त्रियो को माता के समान, परधन को लोष्ट (ढेले) के समान,
और सब प्राणियो को अपनी आत्मा के समान देखता है, वस्तुत. वही द्रष्टा है, देखने वाला है।