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मनुस्मृति को सूक्तियां
दो सौ नवासी
५१. धैर्य, क्षमा, दम (मन.संयम तथा तितिक्षा), अस्तेय, शौच (पवित्रता),
इन्द्रिय-निग्रह, घो (तत्वज्ञान), विद्या (मात्मनान), सत्य और मक्रोध
(क्रोध के हेतु होने पर भी क्रोध न करना)-ये दस धर्म के लक्षण हैं। ५२ मूलतः स्वभाव से विशुद्ध मनुष्य का मिलना कठिन है ।
५३ दण्ड ही समग्र प्रजा का शासन एव संरक्षण करता है ।
५४ जितेन्द्रिय शासक ही प्रजा को अपने वश में कर सकता है ।
५५. दुष्यंसन एव मृत्यु-इन दोनो मे दुर्व्यसन ही अधिक कष्टप्रद है ।
५६ प्रप्राप्त ऐश्वर्य को प्राप्त करने का सकल्प करें, प्राप्त ऐश्वयं की प्रयत्न
पूर्वक रक्षा करे । सुरक्षित ऐश्वयं को बढाते रहे तथा बढे हुए ऐश्वर्य
को धर्म एवं राष्ट्र के लिए उचित रूप से अर्पित करें। ५७. वगुले के समान एकाग्रता से अपने प्राप्तव्य लक्ष्य का चिन्तन करना
चाहिए तथा सिंह के समान साहस के साथ पराक्रम करना चाहिए ।
५८. जो शासक आवश्यकतानुसार समय पर कठोर भी होता है एव मृदु भी,
वही मव को मान्य होता है । ५६. प्रजा का पालन करना ही क्षत्रिय का सब से बडा धर्म है ।
६० आपत्ति निवारण के लिए धन संगृहीत करके रखना चाहिए। धर्मपत्नी
की रक्षा के लिए समय पर धन का मोह भी त्याग देना चाहिए ।
६१. मनुष्य को अपने आत्म-गौरव एव व्यक्तित्व की निरन्तर रक्षा करनी
चाहिए। ६२. जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसे नष्ट कर देता है, और जो धर्म की
रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।